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आपातकाल का साहित्यिक परिदृश्य

Dainik Jagran

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June 23, 2025

25 जून, 1975 को लगे आपातकाल की काली छाया दमन के 50 साल साहित्य पर भी पड़ी। कुछ साहित्यकारों ने दमनकारी सरकार के विरुद्ध लेखनी को हथियार बना लिया तो उन्हें इसका परिणाम भुगतना पड़ा, वहीं कुछ साहित्यकार भय व लोभ के कारण चुप रहे। कथा-साहित्य में आपातकाल की विभिषिका बहुत कम प्रतिबिंबित हुई है, जिसके कारण बता रहे हैं डा. रमाकांत राय, जबकि कविता ने किस तरह विरोध का दायित्व उठाया, इससे परिचित करा रहे हैं अनिल विभाकर व शिव ओम अंबर, जो रचनात्मक रूप से विरोध में खड़े हुए और सरकार के दमनकारी चक्र के शिकार भी हुए ...

आपातकाल का साहित्यिक परिदृश्य

क्यों नहीं लिखे गए आपातकाल पर उपन्यास ?

कविता में जब आपातकाल की चर्चा होती है तो भवानी प्रसाद मिश्र की चार कौए उर्फ चार हौए', सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'आपातकाल', दुष्यंत कुमार की 'चल भाई गंगाराम...' और बाबा नागार्जुन की 'हंस न होंगे उल्लू होंगे' शीर्षक कविता उद्धृत की जाती है। वहीं कहानी में मात्र दो रचनाएं पंकज बिष्ट की 'खोखल' और असगर वजाहत की 'डंडा' मिलती हैं। लेकिन उपन्यास में तो आपातकाल पर केंद्रित रचनाओं का अकाल-सा है। निर्मल वर्मा का उपन्यास 'रात का रिपोर्टर', राही मासूम रजा का 'कटरा बी आर्जू' और मुद्राराक्षस का उपन्यास 'शांतिभंग' ही इस सूची में आते हैं। निर्मल वर्मा का उपन्यास मात्र प्रतीकात्मक ढंग से आपातकाल को व्यक्त करता है। राही मासूम रजा का उपन्यास कटरा बी आर्जू में इलाहाबाद (अब प्रयागराज ) के एक मुहल्ले की कहानी फिल्मी ढंग से कही गई है। हालांकि इसमें आपातकाल का दमनकारी चरित्र अच्छे ढंग से व्यक्त हुआ है। राही मासूम रजा उन गिने-चुने साहित्यकारों में हैं, जिन्होंने आपातकाल का मुखर विरोध किया था । उन पर गिरफ्तारी का संकट मंडराने लगा था।

हिंदी में आपातकाल पर केंद्रित साहित्य क्यों नहीं है, यह प्रश्न हिंदी साहित्यिकों को बहुत चुभता है। प्रगतिशील लेखक संघ के आपातकाल के समर्थन में आने के बाद स्वाभाविक ही था कि इस कालखंड को विस्मृत कर दिया जाता। कतिपय साहित्यकार मानते हैं कि तत्कालीन साहित्यकारों ने सत्ता के डर से इस अवधि को अपनी रचना का अंग नहीं बनाया। सत्ता से प्राप्त सुख के लालच में लोग जनसरोकारों से विमुख हो गए। राही मासूम रजा आपातकालीन तानाशाही का पुरजोर विरोध किया था। उन्होंने एक लेख में लिखा है- इन बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, विचारकों, इतिहासकारों ने इमर्जेंसी के बाद डर के मारे जो चुप साधी थी, वह अभी तक नहीं टूटी है। किसी को अवार्ड लेना है, किसी को नेहरू स्कालरशिप लेनी है, किसी को सरकारी डेलिगेशनों में घुसना है। कोई बोलने में पहल करने को तैयार नहीं, क्योंकि साहित्य अकादमी पुरस्कार देश की अखंडता से ज्यादा कीमती है।

कह सकते हैं कि जब साहित्य राजनीति का मुखापेक्षी हो जाता है तो ऐसे ही रिक्त स्थान दिखाई देने लगते हैं।

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