श्रेष्ठ बनने के मार्ग पर 7 डिवाइन लॉज़
Samay Patrika
|July 2022
जिस प्रकार भौतिक घटना विधानों से बँधी होती है, उसी प्रकार जीवन यात्रा को नियंत्रित करने के लिए आध्यात्मिक विधान होते हैं। उनकी जानकारी से हम समझ पाते हैं कि कुछ लोग इतनी आसानी से सफल कैसे हो जाते हैं, जबकि दूसरों के लिए सफलता एक संघर्ष बनी रहती है
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स्वामी मुकुंदानंद
हम सबकी इच्छा होती है बेहतर होने की। अपने सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व को जगाने की इच्छा हमारे लिए वैसे ही स्वाभाविक है, जैसे आग के लिए ऊष्मा । हम चाहे जितने भी अच्छे हो जाएँ, एक इच्छा बरकरार रहती है- 'मुझे और सुधार करना है। मैं अभी अपने स्वयं के आदर्श स्वरूप तक नहीं पहुँच सका हूँ।'
हमारे काम में भी विकास की ऐसी ही उत्कंठा हिलोरें मारती है। इसके बावजूद कि हमने जीवन में अब तक क्या-क्या हासिल कर डाला है, अंदर से एक आवाज उठती है, 'मैं अब भी संतुष्ट नहीं हूँ, मैं इससे भी बेहतर करना चाहता हूँ। मैं और बेहतर अभिभावक / बच्चा बनना चाहता हूँ; एक बेहतर पति/पत्नी, एक बेहतर अधिकारी/ कर्मचारी, एक बेहतर शिक्षक / छात्र ।' यह सूची अंतहीन होती है...
हमारी इस लालसा का स्रोत क्या है और यह इस कदर हमारा अभिन्न हिस्सा कैसे है? विकास की उत्कंठा रचनाकार की ओर से खुद आती है। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। (15.7)
अर्थात् 'इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।' प्रकृति के अनुसार, हर अंश अपने अंशी की ओर स्वाभाविक तौर पर आकर्षित होता है। चूँकि हमारा स्रोत ईश्वर है और वह सर्वोत्तम है, अतः हम भी उस ईश्वर के जैसा ही होने की लालसा रखते हैं। हम इसी तरह होने के लिए बनाए गए हैं। हमारी आत्मा की नियति ही पूर्णता है और इसलिए यह हमें और आगे विकास करने के लिए उकसाती रहती है।
अपने चारों ओर हम इस बात के गवाह हैं कि धरती की कोख में प्रकृति कार्बन के विकास को सहेज रही है, जो करोड़ों वर्षों में हीरे के रूप में हमारे सामने आता है। बेहद कम समय में कीचड़ घास में बदल जाता है, जिसे गायें खाती हैं और वह दूध में बदल जाता है। वही दूध आगे चलकर दही में परिवर्तित होता है, जिससे मक्खन निकाला जाता है; और अंततः मक्खन घी में तब्दील हो हो जाता है, जिसे शुद्धता के प्रतीक के तौर पर पवित्र वेदी पर चढ़ाया जाता है।
This story is from the July 2022 edition of Samay Patrika.
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