संन्यासी के साथ था हर निवासी
Aha Zindagi
|August 2025
भारत में अंग्रेज़ी राज की औपचारिक शुरुआत 1757 में हुए प्लासी के युद्ध के बाद से मानी जाती है।
यह आम हिंदुस्तानी के जीवट और स्वराज की उत्कट चाह थी कि इसी वक़्त से वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध निरंतर जूझता रहा।
संन्यासी विद्रोह इसी की एक बानगी है जो विदेशी शासन के ख़िलाफ़ आम किसानों, कारीगरों, सैनिकों और संन्यासी फ़क़ीरों का संगठित संघर्ष था।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम को देश का पहला स्वातंत्र्य समर माना जाता है, किंतु उससे काफ़ी पहले 1763 में बंगाल और बिहार में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष शुरू हो चुका था। दरअसल, ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रारंभ से भारत में दो प्रमुख उद्देश्य रखे थे: पहला, भारत की बहुमूल्य संपदा का व्यापारिक शोषण और दूसरा, येन केन प्रकारेण अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उसके सिपहसालारों ने शोषणपूर्ण नीतियां अपनाई थीं। इसके चलते राजा, सैनिक, व्यापारी, कृषक, धर्मगुरुओं जैसे सभी वर्गों और यहां तक कि साधु-संतों तक के दैनंदिन जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था और उनके धर्म, मान, जीवन एवं संपत्ति, सभी ख़तरे में पड़ गए थे।
सन् 1857 में अंग्रेजों द्वारा घोषित तथाकथित सैनिक विद्रोह या ग़दर के पहले के 100 वर्षों में कंपनी की दमनकारी नीतियों से त्रस्त होकर गोरे राज और उनकी सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों के विरुद्ध अनेक सैनिक और असैनिक आंदोलन, विद्रोह और विप्लव हुए। 1770 में बंगाल में भयानक दुर्भिक्ष ने जनाक्रोश को भड़का दिया और लोगों ने इसे कंपनी की नीतियों का परिणाम मानते हुए विदेशी राज के ख़िलाफ़ स्थान-स्थान पर मोर्चा खोल दिया। यह कहानी 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद तब शुरू हुई जब भारत पूर्ण रूप से अंग्रेज़ों के अधीन हो गया था। इस समय अंग्रेज़ों ने जिस नीति को भारतीयों पर थोपा उससे उनके राजनीतिक अधिकार समाप्त हो गए। उन्होंने सत्ता में आते ही सबसे पहले रियासतों को एक-एक कर हड़पने का काम प्रारंभ किया। भारत को आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर बनाने के लिए उद्योग-धंधों को चौपट कर दिया और कच्चा माल विदेशों को भेजा जाने लगा। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में जुलाहे,धुनिया, बढ़ई, लोहार और मोची जैसे हाथ का काम करने वाले लोग भी बेरोज़गार हो गए।
अंग्रेज़ों ने माना, वह किसान विद्रोह था
Bu hikaye Aha Zindagi dergisinin August 2025 baskısından alınmıştır.
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