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परिसीमन में साधना होगा संतुलन
Dainik Jagran
|March 08, 2025
नए परिसीमन में यह सुनिश्चित करना होगा कि बढ़ती जनसंख्या से लेकर विकास के प्रति गंभीरता का भी बराबर ख्याल रखा जाए
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में प्रतिनिधित्व का पैमाना अभी तक 1971 की जनगणना पर ही अटका हुआ है। इसके पीछे यही तर्क रहा कि जनसंख्या नियंत्रण में सफल रहे राज्यों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के स्तर पर संभावित नुकसान से बचाना। हालांकि यह समयसीमा 2026 में समाप्त हो रही है और अब नए सिरे से परिसीमन प्रस्तावित है। इसे लेकर बहस भी शुरू हो गई है। दक्षिणी राज्यों को आशंका सता रही है कि जनसंख्या नियंत्रण के उनके प्रयासों को नए परिसीमन को पलीता लग सकता है। इसी कारण इन राज्यों में विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने एक प्रकार से इस अभियान की कमान भी संभाल रखी है। दक्षिण के अन्य राज्य भी उत्तर भारत के वर्चस्व को लेकर सशंकित होने के कारण उनके सुर में सुर मिला रहे हैं। ऐसे स्वरों को शांत करने के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने आश्वासन भी दिया है कि परिसीमन में दक्षिणी राज्यों के हितों पर कोई आघात नहीं होने दिया जाएगा। भारतीय संविधान ने एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया की संकल्पना की थी, जिसमें प्रत्येक सांसद कमोबेश बराबर लोगों का प्रतिनिधित्व करे। संविधान के अनुच्छेद 81, 82 और 170(3) में यही व्यवस्था की गई है कि समय-समय पर सीटों का नए सिरे से परिसीमन किया जाए जिसमें जनसंख्या परिवर्तन के रुझान को अपेक्षित रूप से समायोजित किया जा सके। इस समय भारत का चुनावी मानचित्र 1971 की जनगणना पर अटका हुआ है, जब उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु की जनसंख्या में उतना अंतर नहीं था, जितना आज है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या अभी 24 करोड़ से अधिक है जो तमिलनाडु से लगभग दोगुनी है, लेकिन उसकी लोकसभा सीटें अभी भी 1971 के स्तर पर ही हैं। क्या यह उचित है?
This story is from the March 08, 2025 edition of Dainik Jagran.
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