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सरस्वती एक खोई हुई नदी की कहानी
DASTAKTIMES
|March 2025
नदी का बदलना संस्कृतियों को बदल देता है। विहंगम इसी बदलाव को समझने की एक छोटी-सी कोशिश है। गंगापथ पर फैली कहानियां एक नदी संस्कृति के बनने की कहानी है। वराह का आंदोलन, सरस्वती तट के विस्थापितों के पदचिह्न और अक्षय वट की गवाही, कुंभ और सनातन के विराट होते जाने की कहानी है। इन कहानियों में गंगा के साथ बहती उसकी नहरें भी हैं, जिनका अपना समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र है। अभय मिश्र की यह नई पुस्तक नदी के भूगोल को देखने और इस भूगोल के सांस्कृतिक इतिहास की गलियों से गुज़रने का एक प्रयास है। प्रस्तुत है इस पुस्तक का एक अंश।
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बेशक कुंभ प्रयागराज में संपन्न होता है लेकिन काशी इस पूरे आयोजन में मौजूद रहती है। वैसे प्रयाग कुंभ में काशी की भूमिका का कोई शास्त्रीय विधान नहीं है, फिर भी काशी के बिना कुंभ का प्रारंभ और समापन नहीं होता। मकर संक्रांति के प्रथम स्नान से पूर्व सबसे बड़ा और ताकतवर, जूना अखाड़ा का मुख्यालय 'बुड्ढा पंच' कुंभ क्षेत्र पहुंचता है। तकरीबन उसी समय अखाड़े के काशी मुख्यालय के काशी कोठार में बड़ी संख्या में नागा जुटते हैं। इस कोठार में नागाओं के प्रथम पूज्य देवता मौजूद हैं। उनका नाम है भाला देवता। भाला देवता की पूजा होती है और उनका प्रयाग प्रयाण होता है। धर्मध्वजा के साथ नागाओं की एक टुकड़ी भाला देवता को लेकर काशी से पैदल चलकर पांच दिन में प्रयाग पहुंचती है। जूना के वरिष्ठ साधुओं को बुड्ढा पंच और युवा साधुओं को रमता पंच कहा जाता है, लेकिन जो साधु भाला देवता को लेकर चलते हैं, उनके लिए देवता पंच का संबोधन है। देवता पंच के मुखिया भाला देवता को कंधे पर उठाए हुए गंगा का रेतीला मैदान पार कर, दारागंज के पास बेनीमाधव गली के मोड़ पर पहुंचते हैं, जहां जूना अखाड़े के साधु-संत फूल-मालाओं से देवता पंचों का स्वागत करते हैं। यहां आवाहन अखाड़े के देवता भी भाला देवता के साथ हो जाते हैं और कारवां आगे बढ़ता है। यह यात्रा नैनी मार्ग पर यमुना सेतु के निकट मौजी आश्रम में देवता को प्रतिष्ठित किये जाने पर संपन्न होती है। यह समूची यात्रा व्यापक सुरक्षा, तामझाम, गाजे-बाजे, और भक्तों की भीड़ के साथ होती है। कुंभ के समापन में इसी तरह भाला देवता वापस काशी पहुंचते हैं। यह भी माना जाता है कि कुंभ के बाद काशी में गंगा स्नान आवश्यक है, इसीलिए कुंभ के दौरान काशी में भी यात्रियों की भारी भीड़ हो जाती है। जूना के नागा संन्यासी भी कुंभ के बाद काशी पहुंचकर महाशिवरात्रि के दिन बाबा विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। एक और अनोखी बात है जो प्राचीनतम नदी नर्मदा को प्रयागराज कुंभ से जोड़ती है। नर्मदा किनारे बसे महेश्वर में बुनाई से जुड़ा एक बड़ा समुदाय बसता है जो महेश्वर साड़ियों से लेकर माला बुनने तक का काम करता है।
This story is from the March 2025 edition of DASTAKTIMES.
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