दबाव के दायरे में पिसता बचपन
Jansatta
|December 12, 2025
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देश में विद्यार्थियों की आत्महत्या की दर प्रतिदिन करीब 38 है, जो पिछले बारह वर्षों में लगभग पैंसठ फीसद बढ़ी है। आखिर क्या वजह है कि कुछ बच्चों के भीतर जीवन शुरू होने से पहले ही उसे समाप्त करने की प्रवृत्ति पैदा हो रही है।
देश भर में बच्चों से लेकर युवाओं तक के जीवन पर पढ़ाई का दबाव और अन्य तरह के अवसाद भारी पड़ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में विद्यार्थियों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर हमारे शिक्षण संस्थानों में कैसा माहौल है और वहां किस तरह की शिक्षा दी जा रही है।
इस समस्या के समाधान के लिए अभिभावकों, समाज और सरकार की ओर से सामूहिक रूप से व्यापक स्तर पर प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं? हम ऐसा सुनते और पढ़ते आए हैं कि शिक्षा मनुष्य को शोषण, दमन, हिंसा और असमानता से लड़ना सिखाती है, उन्हें अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाती है। स्कूल बच्चों को समाज का सभ्य नागरिक बनना सिखाते हैं, उन्हें जीवन के संघर्षों और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करते हैं। ऐसे में सवाल है कि आज बच्चों को किस तरह से शिक्षित किया जा रहा है कि उनके भीतर जीवन शुरू होने से पहले ही उसे समाप्त करने की प्रवृत्ति पैदा हो रही है !
कुछ समय पहले दो बड़ी घटनाएं हुईं, जिन्होंने पूरे समाज को झकझोर दिया। राजस्थान में जयपुर के एक स्कूल की चौथी कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा ने इमारत से कूद कर आत्महत्या कर ली। इस घटना में पीड़ित छात्रा को सहपाठियों द्वारा तंग करने और शिक्षकों की ओर से उसकी शिकायतों को अनदेखा करने के आरोप लगे। दूसरी घटना में दिल्ली के एक स्कूल के दसवीं कक्षा के छात्र ने मेट्रो ट्रेन के आगे कूद कर खुदकुशी कर ली। इस मामले में शिक्षकों पर संबंधित छात्र को उपेक्षित-प्रताड़ित करने के आरोप लगे। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कभी शिक्षा के मंदिर कहलाने वाले विद्यालय अब शिक्षा के बाजार बन गए हैं, जहां शिक्षा को ऐसे बेचा जाता है कि उससे अधिक से अधिक लाभ कमाया जा सके। आज के दौर में शिक्षा के व्यापार को सबसे अधिक फायदे वाला कारोबार माना जाता है। इस कारण अब हरेक नागरिक की शिक्षा तक समान पहुंच मुमकिन रह गई है।
Bu hikaye Jansatta dergisinin December 12, 2025 baskısından alınmıştır.
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