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प्रकृतिप्रिया हमारी आश्रम संस्कृति

Jyotish Sagar

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July 2025

प्राचीनकाल से वर्तमान तक भारत में अध्ययन-अध्यापन को पुण्यकर्म माना जाता है।

प्रकृतिप्रिया हमारी आश्रम संस्कृति

गृहस्थ ब्राह्मण के पाँच महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ को महत्त्वपूर्ण माना गया है। इस यज्ञ का सम्पादन करने के लिए प्रत्येक आचार्य (विद्वान) गृहस्थ के साथ कुछ शिष्य (शिक्षार्थियों) का होना आवश्यक है। तत्कालीन समय में विद्यार्थी अथवा शिक्षार्थी (विद्या अथवा शिक्षा अर्जित करने वाला) जीवन में ब्रह्मचर्य और तप का सर्वाधिक महत्त्व था। उपनिषद् एवं धर्मशास्त्रों में ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देने वाले आचार्य (ऋषियों, गुरु) की आवास भूमि अरण्य को बताया गया है। आचार्यों के आश्रम की पुण्यदायिनी शक्ति से भारतीय ग्रन्थ भरे पड़े हैं। प्राचीन समय में पुण्यदायिनी शक्ति वाले आश्रम ही विद्या का सर्वोच्च केन्द्र बने। धर्मग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि आश्रमों की तीर्थ रूप में प्रतिष्ठा रामायण-महाभारत काल से हुई और विद्याश्रम के लिए 'आयतन' एवं 'पुण्यायतन' शब्दों का प्रयोग किया गया।

प्रकृति मानव की प्रारम्भिक सहचरी रही है। रामायण के अनुसार प्रयाग में भरद्वाज ऋषि का आश्रम अवस्थित था, जहाँ विद्याध्ययन होता था। इस रम्य विद्याश्रम के समीप विविध प्रकार के वृक्ष फल-फूलों से पल्लवित रहते थे। यह आश्रम गंगा-यमुना के संगम के सन्निकट था। दोनों नदियों के संगम से जल निनाद श्रवणीय था। विविध प्रकार के सरस वन्य जीव, अन्न, कन्द-मूल वहाँ फलते-फूलते थे। आचार्यों एवं शिक्षार्थियों के साथ आश्रम में मृग एवं पक्षी भी विचरण करते थे। आचार्य सदैव शिष्यों से घिरे रहते थे। अध्ययन-अध्यापन और आवास के लिए पर्णशालाएँ निर्मित थीं।

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Denne historien er fra July 2025-utgaven av Jyotish Sagar.

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