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Dainik Jagran
|July 19, 2025
शहरी कोलाहल के बीच होकर भी कुली खान का मकबरा किसी हिल स्टेशन सा अहसास देता है।
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परिसर में थोड़ी चढ़ाई, छोटी सी झील और हरियाली की चादर ओढ़े पार्क के बीच बना कुली खान का मकबरा भव्यता के साथ एकांतता से परिपूर्ण है। मकबरे के ठीक सामने कुतुब मीनार ठाठ से अपने वजूद पर इठलाता है। पुरातत्व विभाग-दिल्ली के मुताबिक कुली खान, मुगल बादशाह अकबर की धाय मां माहम अंगा का बेटा व अधम खां का भाई था। उसके ही नाम पर इस मकबरे का निर्माण 17वीं शताब्दी के आरंभ में कराया गया। बाद में मुगल सम्राट बहादुर शाह "जफर" द्वितीय के दरबार में 1835-53 ई. के दौरान ब्रिटिश वार्ताकार सर थामस थियोफिलस मेटकाफ ने मकबरे को खरीदा और अपने अपने मानसून विश्राम स्थल में उपयोग किया।
फारसी कारीगरी और रंग-बिरंगे टाइल्सः मुहम्मद कुली खां का मकबरा फारसी कारीगरी का बेजोड़ नमूना है। पूरा मकबरा लगभग 15 फीट ऊंचे चबूतरे पर बलुआ पत्थरों से बना हुआ है, जो बाहर से अष्टभुजाकार और भीतर से वर्गाकार है। मुख्यद्वार पर फारसी शैली में कुरान की कुछ आयतें लिखीं हुईं थीं, जो अब धूमिल हो चुकी हैं। अंदरूनी भाग पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। इसे बारीक और चित्रित प्लास्टर से बनाया गया है। वहीं बाहरी दीवारों पर फारसी कला में ही गचकारी प्लास्टर के डिजाइन बने हैं। इसके पूर्वी भाग में नीले, हरे और पीले रंगों के चमकदार टाइल्स लगाए गए हैं, जिनमें से अब भी कुछ बचे हैं। राणा सफवी ने अपनी पुस्तक 'व्हेयर स्टोन्स स्पीकः हिस्टोरिकल ट्रेल्स इन महरौली, द फर्स्ट सिटी आफ दिल्ली' में इस मकबरे का विस्तार से वर्णन किया है।
Denne historien er fra July 19, 2025-utgaven av Dainik Jagran.
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