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मोबाइलफोबिया सरकारी जबरदस्ती का नतीजा
Sarita
|June Second 2025
आएदिन बच्चों के मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर खूब हल्ला मचता है और पेरेंट्स को इस का जिम्मेदार मानते हुए बात और बहस खत्म हो जाती है जबकि इस समस्या की जिम्मेदार सरकार ज्यादा है जिस ने कदमकदम पर इसे उसी तरह सभी की मजबूरी बना दिया है जैसे माफिया के गैंग में शामिल हुए लोग उस के चंगुल से चाह कर भी निकल नहीं पाते. बच्चे तो बच्चे हैं, वे मोबाइलफोबिया से कैसे बचे रह सकते हैं.
बड़े तो बड़े, सरकार और उस की नीतियों ने कैसे बच्चों तक की भी नींद और जिंदगी खराब कर रखी है, यह समझने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, अपने घरपरिवार, पासपड़ोस या नातेरिश्तेदारी में देख लें. हर कोई यह कहता मिल जाएगा, 'क्या करें, हमारा बिट्टू या बबली मानतेसमझते ही नहीं, दिन तो दिन पूरीपूरी रात मोबाइल से चिपके रहते हैं. खूब समझाया, डांटा लेकिन उन के कान पर जूं नहीं रेंगती. हम तो हार गए हैं.' मौजूदा दौर के पेरेंट्स की टॉप 5 समस्याओं में पहले या दूसरे नंबर पर यही समस्या निकलेगी जिस का वाकई कोई समाधान नहीं.
उन समस्याओं का दरअसल कोई समाधान होता भी नहीं जो सरकार की सरपरस्ती में फलतीफूलती हैं. बच्चों की मोबाइल लत से जुड़ा डर दिखाने वाला मैटीरियल जहांतहां भरा पड़ा है. रोज बहसें होती हैं, मीडियाबाजी होती है, चिंता व्यक्त की जाती है, तरहतरह के सुझाव आतेजाते हैं. लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात निकलता है. समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद जैसे जिम्मेदार लोग भी बस फूलपत्ते तोड़ कर खुद की जिम्मेदारी पूरी हुई मान लेते हैं. इस बाबत सब से आसान काम है पेरेंट्स को दोषी करार दे देना जो खुद बेचारे बेबसी से बच्चों को स्मार्टफोन की दलदल में धंसते देखते रहते हैं.
यह ठीक है कि स्मार्टफोन नाम का आत्मघाती हथियार वे ही बच्चों को खरीद कर देते हैं जो किसी तलवार, त्रिशूल और पिस्टल, गन वगैरह से कम खतरनाक नहीं. हथियारों को तो खरीदने और घर में लाने से पहले लाइसैंस लेना पड़ता है पर स्मार्टफोन पर कोई प्रतिबंध नहीं है, उलटे सरकार और उस के साए तले पल रही संस्थाओं ने इसे इतना अनिवार्य बना दिया है कि कोई भी सरकारी काम इस के बिना संपन्न नहीं होता. यानी यह विकट की मजबूरी सभी की बना दी गई है और इसी का नुकसान बच्चों को उठाना पड़ रहा है.
अगर स्मार्टफोन पेरेंट्स की मजबूरी हो गया है या बना दिया गया है तो बच्चे भी पेरेंट्स की मजबूरी हैं बिलकुल स्मार्टफोन जैसी ही, जिस से समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती. जिस चीज का मांबाप इस्तेमाल कर रहे हों उस के इस्तेमाल से बच्चे को रोका नहीं जा सकता.
Denne historien er fra June Second 2025-utgaven av Sarita.
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