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जुगनुओं के देश में
DASTAKTIMES
|May 2025
मुस्लिम औरतों के अंतर्मन को समझने वाली इस्मत चुग़ताई, आमिना अबुल हसन, कुर्रतुलऐन हैदर, ख़दीजा मस्तूर, और जमीला हाशमी जैसी गिनी-चुनी उर्दू की लेखिकाएं ही रही है। ये नाम भी जमाने पुराने हो चुके हैं। नए जमाने की उर्दू लेखिकाओं में सबाहत आफ़रीन का नाम इन दिनों चर्चा में है। भारत-नेपाल बॉर्डर पर बसे डुमरियागंज के एक रिवायती मुस्लिम घराने से निकली सबाहत की कहानियां सात पर्दों में छुपी उन मुस्लिम महिलाओं के दर्द, आंसुओं और जज़्बात को बयां करती है, जिनकी ज़िंदगी में सपने जुगनू की चमक की तरह आते-जाते हैं। सबाहत की कोशिश अपनी कहानियों के जरिए सपनों की मुट्ठियों में बंद जुगनुओं को आजाद करने की है। पेश है उनके पहले कहानी संग्रह 'मुझे जुगनुओं के देश जाना है’ की एक कहानी।
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 रात का तीसरा पहर रहा होगा, हाशमी मंज़िल में ग़मी का माहौल था। यूं तो निचला मंज़िला काफ़ी वक्त से वीरान रहा करता था मगर आज यहां इंसानों की सरसराहट थी, धीमे-धीमे किसी के कुरान पढ़ने की आवाज़ आती तो कहीं किसी कोने में कोई तस्बीह गिन रहा होता। बड़े दीवानखाने से खाने की मेज़ और कुर्सियां हटवा दी गयी थीं, बुजुर्गों के बैठने के लिए एक तरफ़ चार-पांच लकड़ी की कुर्सियां रखी थीं जिन पर पतली रुई भरी गद्दियां लगी थीं, हालांकि एक ज़माने से उनकी रुई बदली नहीं गयी, इसलिए शीशम की संगत में रुई भी पूरी तरह सख्त हो चुकी थीं। बाक़ी लोगों के बैठने के लिए काले और सुर्ख बिंदियों वाले मोजैक के फ़र्श पर दरी बिछा दी गयी थी, उसी पर चादरें डलवा दी गयी थीं। दीवार से ज़रा सटा कर चौकी लगी थी, उस पर गद्दा डाल कर सफेद चादर बिछाया गया था। अनवर मामू दीन-दुनिया से बेखबर उसी सफ़ेद चादर पर अबदी नींद सो रहे थे। दसियों साल से बीमारियों में उलझा उनका बूढ़ा कमज़ोर ज़िस्म जैसे आज कितनी राहत महसूस कर रहा था।
सर से पैर तलक उन्हें सफ़ेद चादर ओढ़ा दिया गया था, बड़े से कमरे में लोबान की खुशबु तैर रही थी, मय्यत के आस-पास रिश्तेदार बैठे उकताई हुई नज़रों से थोड़ी-थोड़ी देर में दीवार घड़ी की तरफ़ देख लेते थे कि कब सवेरा हो, कब नमाज़ जनाज़ा हो और कब सब अपने घर को जाएं। आखिर मग़रिब से पहले जान रुख़सत हुई है, कब तक कोई रखे रहे? मुर्दा यूं भी जल्द से जल्द मिट्टी पाए वही बेहतर है। दूर-दराज़ के सारे नाते रिश्तेदार, बेटे बेटियां पहुंच चुकी हैं, अब इंतज़ार किस बात का है।
इन्ही सब के दरमियान एक अलग ही वाक़या पेश हुआ। खैर, वाक़या क्या कहेंगे मगर औरतों की मामूली हरकतें भी हमारे शरीफ घरानों में वाक़ये की सूरत अख्तियार कर लेती हैं। दरअसल, नवंबर की शुरुआत थी, क़स्बों-देहातों में ठंड ज़रा जल्दी दस्तक देती है। पंखा वगैरह बंद था इस वजह से थोड़ा सन्नाटा महसूस हो रहा था कि तभी अनवर साब के पायताने की तरफ़, नीचे फ़र्श पे बैठी उनकी बीवी असमा, जिन्हें हम सब असमा मुमानी कहते थे, उनके हल्के-हल्के खर्राटे की आवाज़ आने लगी। ताज़े-ताज़े मुर्दे के पास से ख़र्राटों की आवाज़? वो भी उनकी सगी बीवी की? या अल्लाह तोबा अस्तग़फ़ार! दीवानखाने में मौजूद सारे क़रीबी रिश्तेदार चौंक कर उन्हें देखने लगे।
Denne historien er fra May 2025-utgaven av DASTAKTIMES.
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