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यूपी में पेंडुलम की तरह झूलते ओबीसी वोटर!
DASTAKTIMES
|April 2024
केन्द्र में मोदी को शीर्ष तक पहुंचाने में ओबीसी की बड़ी भूमिका रही है। राज्यों में मुलायम, लालू एवं नीतीश की राजनीति भी ओबीसी की फैक्ट्री से ही निकली। आज भी कई राज्यों में राजनीतिक दलों का भविष्य ओबीसी वोटरों के मूड पर निर्भर करता है। यह तब है जबकि चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जो बता सके कि किस वर्ग ने किस दल को वोट किया।
भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला लोकतांत्रिक देश है। यहां 543 सांसदों का चुनाव करने के लिए लोकसभा चुनाव में करीब 97 करोड़ मतदाता हिस्सा लेंगे। अपने देश में होने वाले चुनाव पूरी दुनिया के लिए किसी अजूबे से कम नहीं होते हैं। पूरी दुनिया की नजर हिन्दुस्तान के चुनावों पर इसलिए भी लगी रहती है क्योंकि यहां चुनाव विकास के नाम से अधिक जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर होते हैं। कोई पार्टी मुस्लिमों को लुभाने में लगी रहती है तो कोई दल दलितों को अपने पाले में खींचने में लगा रहता है। लेकिन इन सबके बीच किसी भी चुनाव में जनसंख्या के लिहाज से सबसे ज्यादा दबदबा अन्य पिछड़ा वर्ग का रहता है, जिसकी संख्या करीब 50 प्रतिशत है, लेकिन ओबीसी हमेशा से वोट बैंक नहीं रहा था। भारत की सियासत में ओबीसी की राजनीति में बड़ा उलटफेर तब आया, जब 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया। दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की गई थी। सिफारिशें लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी उग्र प्रदर्शन हुए, आगजनी और कई लोगों की मौत भी हुई। इसी के बाद तमाम सियासतदारों के लिए ओबीसी एक वोट बैंक बन गया। बाद में ओबीसी की सियासत में कई नेताओं ने ही नहीं जातियों के प्रमुखों ने भी अपने हाथ सेंके। आज जाट समाज ओबीसी आरक्षण मांग रहा है, लेकिन एक वक्त था जब यही समाज मंडल कमिशन का खुलकर विरोध कर रहा था। वीपी सिंह अक्सर कहा करते थे कि पिछड़ों को सहूलियत नहीं सत्ता में शिरकत चाहिए। अप्रैल 2018 तक केन्द्रीय ओबीसी सूची में कुल 2,479 जातियां शामिल थीं। ये जातियां अब तक अलग-अलग राज्यों में अलगअलग पार्टियों की समर्थक रही हैं।
Denne historien er fra April 2024-utgaven av DASTAKTIMES.
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