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मैं सबसे छोटा और घटिया 'एक्टर' हूँ धर्मेन्द्र

Mayapuri

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Mayapuri Edition 2669

आठ - दस दिन से धर्मेन्द्र के साथ आँख-मिचौली चल रही थी। कई बार इंटरव्यू के लिए समय निश्चित हुआ लेकिन जब काम की बात शुरू करते तो कोई न कोई निर्माता आ धमकता! वस्तुतः आज धर्मेन्द्र से अकेले में मिलना उतना ही मुश्किल है जितना कि किसी प्रेमिका से तन्हाई में मिलना ! लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और अंत में दीवाली के ही दिन धर्मेन्द्र के 'घरेलू समय' में से एक घंटा हथियाने में सफल हो ही गया।

- मायापुरी के लिए लिया गया विशेष इंटरव्यू - जैड. ए. जौहर

उस दिन मैं रात को आठ बजे जब बंगले पर पहुँचा तो पता चला कि धर्मेन्द्र अपने बंगले की छत पर बने गार्डन में बाँस से बने अपने निजी कॉटेज-रूम में मौजूद हैं। भाभी जी (श्रीमती धर्मेन्द्र) अपने नन्दोई बिक्रम भाई के यहाँ जाने की तैयारी कर रही थीं। बंगले के बाहर पटाखे छूट रहे थे। मैंने दरवाजा खोला तो मेंहदी हसन के गाने की आवाज सुनाई पड़ीः

'गम से जरा नजात मिली बेखुदी में आज अब मेरा इंतजार करो मैं नशे में हूँ'

मुझे देखते ही धर्मेन्द्र ने टेप-रिकॉर्डर बन्द कर दिया और बोले, "आइये जौहर मियाँ! आज अच्छे मौके से आए हैं।"

"आपको संगीत के नशे में डूबा देखकर खुशी भी हो रही है और हैरत भी! आपने वह चीज जिसके बारे में लोग कहते हैं - 'छूटती नहीं है मुँह से यह काफिर लगी हुई' - एकदम छोड़ दी है। क्या अब सूरज ढलने के बाद कभी उस लालपरी की याद नहीं सताती?" मैंने बातचीत का सिलसिला छेड़ते हुए कहा। "आपने उसे एकदम से कैसे छोड़ दिया?"

"यह तो अपने-अपने 'विल पावर' की बात है। शराब छोड़े चार महीने हो गए हैं और मैंने एक सिप तक नहीं लिया है। दरअसल पिछले दिनों अमरीका में मैंने इस कदर शराब पी ली थी कि उससे दिल भर गया। यह सही है कि शराब छोड़ने के पश्चात शुरू-शुरू में तन्हाई मुझे काटने को दौड़ती थी। लेकिन शराब छोड़ते ही घर वालों ने बॉर तोड़कर शराब की एक-एक बोतल चुन-चुन कर फेंक दी थी। ऐसे में एक दिन तलब ने परेशान किया तो मैंने इस ख्याल से कि शायद कोई एक-आध बोतल रह गई हो, चोरी-चोरी तलाशी शुरू की और संयोग से किताबों के पीछे से एक क्वार्टर मिल गया।

लेकिन मेरी यह हरकत भी बॉबी मेरे चहेते बेटे ने देख ली और आशा के विपरीत घर वालों से चुगली कर दी। और इस तरह मैं रंगे हाथों पकड़ा गया। और एक बवंडर खड़ा हो गया। घर वालों और करीब दोस्तों की मोहब्बत देख कर मैं खुशी से गद्गद् हो उठा। घर वाले न आते तो शायद उस दिन कसम टूट जाती। लेकिन घर वालों ने वक्त पर बचा लिया। अब तो जब कभी शराब का खयाल आता है तो मुझे अपने एक पत्रकार दोस्त एल. पी. राव (संपादक 'फिल्म फेयर') - जिन्होंने धर्मेन्द्र को बम्बई बुलाया था और फिल्मों में काम दिलाने में सहायता की थी और दिल्ली वाले मामा जी की दुखद मौत याद आ जाती है। और किसी शायर का यह शेर चरितार्थ हो उठता है:

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