कोशिश गोल्ड - मुक्त
श्रीगुरुगीता (भाग-18)
Jyotish Sagar
|April-2023
सद्गुरु के निवास से न केवल वह आश्रम या पीठ ही शुद्ध या पवित्र होती है, वरन् वह सम्पूर्ण प्रदेश भी पवित्र और ऊर्जावान् बन जाता है।
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स्कन्दपुराणोक्त 'श्रीगुरुगीता' की व्याख्या पर आधारित प्रस्तुत लेखमाला में विगत 17 भागों में प्रारम्भ के 126 श्लोकों की व्याख्या प्रकाशित की जा चुकी है। अब उससे आगे के श्लोक व्याख्या सहित प्रस्तुत है।
॥ श्लोक 127 ॥
स देश: शुद्धौ: यत्रासौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति।
तत्र देवगणा: सर्वे क्षेत्रे पीठे वसन्ति हि॥
अन्वय: यत्रासौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति स देश: शुद्धौः तत्र क्षेत्रे पीठे सर्वे देवगणा: हि वसन्ति।
शब्दार्थ : यत्रासौ = जहाँ वह; स्वभावाद्यत्र = स्वभाविक रूप से जहाँ; तिष्ठति = निवास करते हैं अथवा विराजमान होते हैं; स = वह; देश: = प्रदेश; शुद्धौ: = पवित्र; तत्र = वहाँ; क्षेत्रे = क्षेत्र में; पीठे=पीठों में; सर्वे = सभी; देवगणा: = देवतागण; हि = भी; वसन्ति = निवास करते हैं।
भावार्थ : जहाँ कहीं वह (सद्गुरु) स्वाभाविक रूप से निवास करते हैं, उन सभी प्रदेशों एवं पीठों में देवतागण भी निवास करते हैं।
व्याख्या : सद्गुरु के निवास से न केवल वह आश्रम या पीठ ही शुद्ध या पवित्र होती है, वरन् वह सम्पूर्ण प्रदेश भी पवित्र और ऊर्जावान् बन जाता है। फलतः उस प्रदेश के सभी क्षेत्रों एवं पीठों में स्वयं देवतागण भी निवास करते हैं।
।। श्लोक 128-129 ॥
आसनस्थ: शयानो वा गच्छंस्तिष्ठन् वदन्नपि ।
अश्वारूढो गजारूढ: सुप्तो व जागृतोऽपि वा ।।
शुचिमांश्च सदा ज्ञानी गुरुगीताजपेन तु ।
तस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते ॥
अन्वय : आसनस्थ शयानो गच्छ: तिष्ठन: वदन्नपि वा अश्वारूढो गजारूढ: सुप्तो वा जागृतोऽपि वा तु ज्ञानी गुरुगीताजपेन सदाशुचिः एवं तस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते।
यह कहानी Jyotish Sagar के April-2023 संस्करण से ली गई है।
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