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संवदिया

Aha Zindagi

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December 2025

दुश्वारियों के बीच भरोसे का दम देने वाली यह कालजयी कथा ऐसी ही है।

- - फणीश्वरनाथ रेणु

संवदिया

तमाम छल-कपट, लूट-खसोट, शोषण और रिश्तों की तार-तार होती गरिमा के बीच, यह एक महीनसे मानवीय रिश्ते की कहानी है जो अब भी बचा हुआ है। कम ही होता है कि कोई रचना हृदय को छू ले और साथ ही साथ दिमाग़ को भी झकझोर दे।

मार्च 4, 1921 को बिहार के पूर्णिया में जन्मे रेणु मूर्धन्य आंचलिक कथाकार थे। 'मैला आंचल' उपन्यास ने हिंदी के उपन्यासकार के रूप में उन्हें अभूतपूर्व ख्याति दिलाई। कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर 'तीसरी क़सम' नामक प्रसिद्ध फिल्म बनी। वर्ष 1977 में 11 अप्रैल को निधन।

हरगोबिन को अचरज हुआ- तो आज भी किसी को संवादिया की ज़रूरत पड़ सकती है! इस ज़माने में, जबकि गांव-गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवादिया के मार्फ़त संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक ख़बर भेज सकता है और वहां का कुशल संवाद मंगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है?

हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया। सदा की भांति उसने वातावरण को सूंघकर संवाद का अंदाज़ लगाया। निश्चय ही कोई गुप्त संवाद ले जाना है। चांद-सूरज को भी नहीं मालूम हो! परेवा-पंछी तक न जाने !

'पांवलागी बड़ी बहुरिया!'

बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आंख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा। बड़ी हवेली अब नाम-मात्र को ही बड़ी हवेली है! जहां दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहां आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज लेकर झटक रही है।

बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल ख़त्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दखल किया। फिर, तीनों भाई गांव छोड़कर शहर जा बसे। रह गई अकेली बड़ी बहुरिया। कहां जाती बेचारी!

भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? ... बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-खींचकर बंटवारे की लीला हुई, हरगोबिन ने देखी है अपनी आंखों से द्रौपदी चीरहरण लीला ! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बंटवारा किया था, निर्दयी भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!

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