स्त्री रचनाकारों पर आलोचकों की निगाह न जाने पर वे कहती थीं कि हमें अपने बीच से समीक्षक तैयार करने होंगे. उन्होंने महिला संगठन भी बनाए पर नारीवादी कभी नहीं रहीं
उबाजी नहीं रहीं. भले ही वे 78 साल की हो गई थीं, कई दफा सार्वजनिक आयोजनों में व्हीलचेयर पर नजर आती थीं, कभी-कभी बीमार होने के चलते किसी जलसे में नहीं भी पहुच पातीं. फिर भी बिहार, खासकर पटना के साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक हलकों में उनकी लगभग सतत मौजूदगी रहती. तभी तो इतवार 11 फरवरी की दोपहर उनके निधन की खबर पर उन्हें जानने-चाहने वालों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी: अरे ! हम जैसे पत्रकारों को लगता था कि मिथिला, बिहार, साहित्य, स्त्री, इतिहास, संस्कृति किसी भी मसले पर उनसे कभी भी कुछ भी पूछा जा सकता है.
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin February 28, 2024 sayısından alınmıştır.
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फिर आ गया हूं मैं
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तिलों में बाकी तेल है कितना
उत्तर प्रदेश में छठे और सातवें चरण का लोकसभा पूर्वी यूपी में पिछड़ी जाति के कई दिग्गज नेताओं का कद तय करने जा रहा
जी जान से सुक्खू का अभियान
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आखिर क्यों महत्वपूर्ण हैं आदिवासी वोट
देशभर में आदिवासियों के लिए सुरक्षित लोकसभा की 47 सीटें पीएम मोदी के 400 पार अभियान के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण लेकिन 2019 के मुकाबले इस बार इन्हें जीतना शायद उतना आसान नहीं