सबकुछ वैसा ही दिख रहा और दिखाया जा रहा है जैसा एक आदर्श और परंपरागत दीवाली पर होना चाहिए. मसलन, देश रोशनी से नहाया हुआ है, गुलजार बाजारों में चहलपहल है, रियल एस्टेट में बूम आया हुआ है, औटो मोबाइल सैक्टर की बल्लेबल्ले हो रही है, सर्राफा बाजार पर लक्ष्मी बरस रही है, इलैक्ट्रोनिक्स के आइटम्स खरीदने के लिए भीड़ टूटी पड़ रही है, कपड़े की दुकानों में पांव रखने की जगह नहीं है और धनतेरस पर जम कर बरतनों की खरीदारी होने की संभावना है वगैरहवगैरह.
दिखाने के इन दांतों से परे खाने के दांतों की बात करें तो इस दीवाली आम लोगों का मूड उखड़ाउखड़ा सा है क्योंकि सब की जेबें खाली हैं, इसलिए उन के चेहरों पर पहले सी खुशी और मन में उत्साह नहीं है. एकदूसरे को देने को जबां पर शुभकामनाएं हैं पर मन में एक सफेद हैं झूठ बोलने का अपराधभाव भी है.
आतिशबाजी के बहिष्कार या उस के कम चलाने को प्रोत्साहित इसलिए नहीं किया जा रहा कि उस से कोई ध्वनि प्रदूषण की चिंता किसी को सताने लगी हो बल्कि इसलिए कि यह उन मदों में से एक है जिन में कटौती करना मजबूरी हो चली है.
मिठाई से शुगर यानी डायबिटीज होने की दलील लोग देने लगे हैं तो सहज समझा जा सकता है कि हम दीवाली मना नहीं रहे हैं, बल्कि मनाने का स्वांग कर रहे हैं.
भार बना त्योहार
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