भाषा परिवार और सभ्यता का नस्ली सिद्धांत
Pratiman
|January - June 2020
अठारहवीं से लेकर उन्नीसवीं सदी के दौरान युरोप के बौद्धिक मानस पर धर्म, समाज, राष्ट्र और नस्ल की श्रेष्ठता को भाषाओं की श्रेष्ठता के आईने में देखने का रुझान हावी था।
इस अवधि के युरोपीय बुद्धिजीवी इनसे संबंधित विचारों और तात्पर्यों को भिन्न-भिन्न श्रेणियों की तरह सम्बोधित करने के बजाय मिले-जुले ढंग से इस्तेमाल करते थे। 1770 में जर्मन दार्शनिक योगान गोटफ्रीड हर्डर से लेकर 1862 में लंदन में सक्रिय फ्रीड्रिल मैक्स मुलर तक विद्वानों का लम्बा सिलसिला इस रवैये का साफ़ तौर पर मुज़ाहिरा करता है। ये लोग भाषा में 'मा
Dit verhaal komt uit de January - June 2020-editie van Pratiman.
Abonneer u op Magzter GOLD voor toegang tot duizenden zorgvuldig samengestelde premiumverhalen en meer dan 9000 tijdschriften en kranten.
Bent u al abonnee? Aanmelden
MEER VERHALEN VAN Pratiman
Pratiman
महाभारत और सौंदर्यशास्त्र की चरम अनुभूति
यथार्थ का अतिक्रमण : प्राचीन और आधुनिक आख्यानों का अंतर
1 min
January - June 2020
Pratiman
भविष्य के महानायक या 'एक असम्भव सम्भावना'?
गाँधी एक अर्थ में अनूठे हैं भारत के इतिहास में। भारत के विचारशील व्यक्ति ने कभी भी समाज, राजनीति और जीवन के संबंध में सीधी कोई रुचि नहीं ली है। भारत का महापुरुष सदा से पलायनवादी रहा है। उसने पीठ कर ली है समाज की तरफ़। उसने मोक्ष की खोज की है, समाधि की खोज की है, सत्य की खोज की है, लेकिन समाज और इस जीवन का भी कोई मूल्य है यह उसने कभी स्वीकार नहीं किया। गाँधी पहले हिम्मतवर आदमी थे जिन्होंने समाज की तरफ़ से मुँह नहीं मोड़ा। वह समाज के बीच खड़े रहे और जिंदगी के साथ और जिंदगी को उठाने की कोशिश उन्होंने की। यह पहला आदमी था जो जीवनविरोधी नहीं था, जिसका जीवन के प्रति स्वीकार का भाव था।
1 min
January - June 2020
Pratiman
भाषा परिवार और सभ्यता का नस्ली सिद्धांत
अठारहवीं से लेकर उन्नीसवीं सदी के दौरान युरोप के बौद्धिक मानस पर धर्म, समाज, राष्ट्र और नस्ल की श्रेष्ठता को भाषाओं की श्रेष्ठता के आईने में देखने का रुझान हावी था।
1 min
January - June 2020
Pratiman
भय की महामारी
यह देखना एक त्रासद अनुभव है कि जिस कोविड-19 के भय से मानव इतिहास के सबसे बड़े परिवर्तनों में से एक के घटित होने की आशंका है, वह भय बेहद अनुपातहीन और अतिरेकपूर्ण है। इस बात के भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं कि इन प्रतिबंधों से वायरस के संक्रमण या इससे होने वाली कथित मौतों को रोका जा सकता है। बेलारूस, निकारागुआ, तुर्की, स्वीडन, नार्वे, तंजानिया, स्वीडन, जापान आदि अनेक देशों ने डब्ल्यूएचओ की प्रत्यक्ष और परोक्ष सलाहों तथा मीडिया द्वारा बार-बार लानत-मलामत किये जाने के बावजूद या तो बिल्कुल लॉकडाउन नहीं किया, या फिर बहुत हल्के प्रतिबंध रखे। इनमें से किसी देश में कहीं अधिक मौतें नहीं हुई हैं। यह सही है कि बड़ी संख्या में लोगों के कोरोना-संक्रमण की पुष्टि हो रही है, लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि यह वायरस उन संक्रमित लोगों में से अधिकांश लोगों को 'बीमार' तक कर पाने में सक्षम नहीं है।
1 min
January - June 2020
Pratiman
औपनिवेशिक भारत में हिंदी का विज्ञान-लेखन
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश भारत में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के खुलने और स्कूली शिक्षा के प्रसार के साथ ही भारतीय भाषाओं में विभिन्न विषयों की पाठ्य -पुस्तकों की ज़रूरत भी शिद्दत से महसूस की गयी।
1 min
January - June 2020
Pratiman
हिंसक आर्थिकी का प्रतिरोध
मशीन को उसके उचित स्थान पर बैठाना
1 min
July - December 2019
Pratiman
राजपूत और मुग़ल:संबंधों का आकलन
देशज इतिहासकारों की दृष्टि में
1 min
July - December 2019
Pratiman
यौन-हिंसा और भारतीय राज्य
विसंगतियों के आईने में
1 min
July - December 2019
Pratiman
मेरी अंग्रेज़ी की कहानी
अंग्रेज़ी जातिगत विशेषाधिकारों को मजबूत करती है, वर्गीय गतिशीलता के नियम तय करती है और व्यक्ति को एजेंसी से लैस करती है। क्या अंग्रेजों के सामाजिक इतिहास का कोई आत्मकथात्मक आयाम उसकी इस भूमिका की ख़बर दे सकता है? प्रस्तुत निबंध में इसी जोखिम से मुठभेड़ करने की कोशिश की गयी है।
1 min
July - December 2019
Pratiman
भारोपीय भाषा परिवार, हिंदी और उत्तर-औपनिवेशिकता
समीक्ष्य कृति हिंदी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसे उत्तर-आधुनिक, सबाल्टर्न और उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श के 'सैद्धांतिक निष्कर्षों' के प्रभाव में लिखा गया है।
1 min
July - December 2019
Translate
Change font size

