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मुद्दा • लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाएँ वो असंतोष भी खत्म हो, जो हिंसा की ओर ले जाता है
Dainik Bhaskar Singrouli
|October 22, 2025
बीते दिनों माओवादी संगठनों से जुड़े कुछ बड़े नेताओं ने जैसे आत्मसमर्पण किया है, उससे लगता है सरकार अपने कहे मुताबिक अगले साल तक माओवाद के उन्मूलन में सफल हो जाएगी।
लेकिन माओवाद का खात्मा जितना जरूरी है, उतना ही उन कारकों का भी है, जिनकी वजह से माओवाद पैदा होता है। आखिर यह हाल की परिघटना नहीं है, देश के अलग-अलग हिस्सों में, अलग-अलग वर्षों में, अलग-अलग नामों से विकसित अति-वाम आंदोलन वह लाल गलियारा बनाते रहे हैं, जिसे मनमोहन से लेकर मोदी तक देश के लिए सबसे खतरनाक मानते रहे हैं।
निस्संदेह, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसक आंदोलनों की जगह नहीं हो सकती। अगर हम संसदीय लोकतंत्र में भरोसा करते हैं तो हिंसा के रास्ते का समर्थन नहीं कर सकते। वैसे भी हिंसा का अपना एक चरित्र होता है, जो बंदूक थामने वाले को भी बदल डालता है। फिल्म 'हाइवे' का मार्मिक संवाद है- 'जब एक गोली चलती है तो दो लोग मरते हैं- जिसे गोली लगती है, वह भी और जो गोली चलाता है वह भी।' दुनिया भर की हिंसक क्रांतियों का अनुभव बताता है कि उनसे कहीं ज्यादा हिंसक व्यवस्थाएं निकली हैं।
Denne historien er fra October 22, 2025-utgaven av Dainik Bhaskar Singrouli.
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