इन नायकों को गैर-बराबरी की सुरंग से कौन निकालेगा?
Outlook Hindi
|January 08, 2024
जो 41 लोग बचाए गए वे मजदूर हैं, जिन 12 ने बचाया वे भी मजदूर हैं, दोनों ही सामाजिक व्यवस्था के हाथों मजबूर, सवाल इन्हें नायक बनाने से आगे का है
उत्तरकाशी हादसे में 17 दिनों तक सुरंग में फंसे 41 मजदूरों की जान आखिरकार उन्हीं जैसे मजदूरों ने बचाई। जहां मशीन और टेक्नोलॉजी काम नहीं आई, वहां ये मजदूर काम आए, जिनके काम को भी गैर-कानूनी बताया जा चुका था। वाकई वे 2023 की सुर्खियों के सरताज हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि आज देश में उन्हें भले नायक की तरह पेश किया जा रहा है, वे इसलिए जिंदा हैं क्योंकि उनका ठेकेदार उन्हें जिंदा रखे हुए है। भले साल में चार-पांच महीने का ही काम मिलता हो, लेकिन ये लोग जिंदा हैं, यही गनीमत है। नसीरुद्दीन पूछते हैं कि क्या उन्हें भी सरकारी मजदूर जैसा हक नहीं है? सरकारी ठेकों में प्राइवेट लेबर की जान जोखिम में क्यों डाली जाती है? सवाल वाजिब है। सरकार ने अगर 2014 में रैटहोल माइनिंग पर प्रतिबंध लगा दिया था, तो ये काम करने वाले लोग अब तक कैसे इसी के सहारे घर-परिवार चला रहे हैं? क्या मानवाधिकार की बातें केवल कागज पर ही होंगी? बाहर समाज में नहीं? सिर्फ इसलिए क्योंकि जिन कामों को यह समाज गर्हित, नीच और तुच्छ मानता है वे काम शहरी समाज के लाभ और सुविधा के हित जारी रहने चाहिए?
ग्रेटर नोएडा में पिछले दिनों आठ सौ सफाई मजदूर हड़ताल पर चले गए थे। पूरे शहर में प्राधिकरण के लिए चौदह सौ सफाई मजदूर काम करते हैं। इनमें आधे से ज्यादा के बैठ जाने से शहर की साफ-सफाई का सारा काम ही ठप पड़ गया। महीने भर के आंदोलन के बाद अंततः ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी को मजदूरों से बात करनी पड़ी और उनकी मांगों पर सुनवाई के लिए एक कमेटी बना दी गई। इसके बावजूद यह गारंटी नहीं है कि उनकी मांगें मानी जाएंगी क्योंकि शहरी आदमी के सोचने की दलील यही रहती आई है कि अगर ये लोग बैठ जाएंगे तो उनके काम कौन करेगा। गोया ये लोग पैदा ही हुए हों मनुष्य जीवन में तमाम गर्हित कामों को करने के लिए! और यह अटकल नहीं है, वाकई हकीकत है कि कुछ खास जातियों में जन्मे लोगों को ही कुछ खास कामों के लिए यह समाज आरक्षित मानता है।
Denne historien er fra January 08, 2024-utgaven av Outlook Hindi.
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