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अब राहुल से बड़े नेता हैं केजरीवाल
Gambhir Samachar
|December 16, 2022
अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की राजनीतिक सफलताएं साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि राजनीति अब पूरी तरह से राष्ट्रवादी रिंग में है. सीधा-सीधा समझना चाहें तो राजनीति में 'हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व' की लड़ाई के युग की शुरुआत हो चुकी है. और यह असल में किसी तरह का धार्मिक विचार नहीं बल्कि भारतीयता का ही एक समानार्थी शब्द है. भारतीय मूल्यों में भरोसा रखने वाले हर व्यक्ति में हिंदुत्व है. उसकी अलग पूजा पद्धति, उसका निजी मसला हो सकता है. खैर, इसी साल पंजाब समेत तमाम राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद अब दिल्ली निगम में केजरीवाल की जबरदस्त जीत के मायने हैं. गुजरात और कुछ हद तक हिमाचल में भी उन्हें जो भी हासिल होता दिख रहा है, उसे भी मामूली नहीं कहा जा सकता. भले ही संख्या में सीटें दो-चार या फिर उससे कुछ ज्यादा ही हों.
महज कुछ साल पहले बनी एक पार्टी के जादुई करिश्मे में भारत के राजनीतिक भविष्य को देखा जा सकता है. केजरीवाल की हालिया सफलता असल में कांग्रेस के समूल विनाश की अब तक की सबसे बड़ी घोषणा है. तय मान लीजिए. सिर्फ लोकसभा को छोड़ दिया जाए तो दिल्ली में आप पार्टी लगभग अपराजेय है. पंजाब में भी दूर-दूर तक कुछ नजर नहीं आ रहा, जिसकी वजह से मान लिया जाए कि कल की तारीख में 'आप' वहां कोई राजनीतिक ताकत नहीं रहेगी. दिल्ली निगम और पंजाब की सफलता से पहले गोवा में आप ने इसी साल खाता खोला और दो सीटें जीतने में कामयाबी पाई. उत्तराखंड में पार्टी ने पहला चुनाव लड़ा. बड़ी कामयाबी तो नहीं मिली, मगर भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों की मौजूदगी में एक नई नवेली पार्टी ने 3.8% वोट हथियाए. क्या यह बहुत बड़ी बात नहीं.
एक से बढ़कर एक महारथियों के बीच यूपी में आप के शुरुआती प्रयास को खारिज नहीं किया जा सकता. विधानसभा नतीजों के बाद ₹द हिंदूर से एक ख़ास बातचीत में संजय सिंह ने बताया था कि उनकी पार्टी ने यूपी में जो प्रदर्शन किया वह शानदार ही है. दो विधानसभा सीटों पर आप उम्मीदवारों ने 25 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए. कुछ सीटें ऐसी थीं जहां उम्मीदवारों को 7-8 हजार वोट मिले. सपा-भाजपा के बीच दो ध्रुवीय चुनाव में आप को 0.34 प्रतिशत ही वोट मिले थे. लेकिन नाममात्र ही सही यूपी में उनकी मौजूदगी को खारिज नहीं कर सकते. अब विपक्षी दलों खासकर उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्रीय क्षत्रपों को एकांत में बैठकर ईमानदारी से सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजहें हैं जो एक तरफ मोदी के नेतृत्व में भाजपा का लगातार विस्तार हो रहा है. दूसरी तरफ उसी मोदी और भाजपा की खिलाफत करने वाले केजरीवाल भी तमाम 'माहिर' और 'मोहरों' को दरकिनार करते हुए शिखर की तरफ बढ़ रहे हैं. केजरीवाल के पीछे जो मतदाता खड़ा है आखिर वह कौन है? केजरीवाल के सजातीय तो देशभर में इतनी संख्या में हैं भी नहीं और उन्हें भाजपा का कोर वोटर भी माना जाता है. समूचे विपक्ष का दायरा सिकुड़ रहा है. अब सवाल है कि भाजपा के सामने जब दूसरे क्षेत्रीय दल हारते जा रहे हैं फिर केजरीवाल के पास ऐसा क्या है जो उन्हें विपरीत हालात में कामयाबी हासिल हो रही है. वह भी लगातार.
मोदी-केजरीवाल अपनी राजनीति को लेकर साफ़ हैं
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