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पसमांदा मुसलमानों को अलग पहचान जरूरी क्यों?
Gambhir Samachar
|September 01, 2022
उन्नीसवी शताब्दी के मध्य का काल आते आते अंग्रेज़ पूरी तरह अपनी सत्ता सुदृण कर लेते हैं. इन बदली हुई परिस्थितियों में मुस्लिम शासक वर्ग यानी अशराफ वर्ग ने अपने सत्ता और वर्चस्व को बचाने के लिए अपनी पूर्ववर्ती नीतियों को बदलते हुए मुस्लिम राष्ट्रवाद की परिकल्पना रखा जिसका प्रमुख साधन पृथक निर्वाचन, द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम साम्प्रदायिकता था.
क्यों जरूरी है पसमांदा मुसलमानो को अलग पहचान मिलना ? यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बाहर से आए हुए शासक वर्गीय मुसलमान, जो स्वयं को विदेशी अशराफ कहते हैं, के द्वारा भारतीय मूल के मुसलमान, जो कालान्तर में किन्हीं कारणों से मुस्लिम बन गयें थे और जिन्हें अब देशज पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित और पिछड़े) कहा जाने लगा है, के साथ मुख्यतः नस्लीय और सांस्कृतिक आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है. भारतीय मुसलमानो के साथ यह भेदभाव शिक्षा से लेकर राजनीति तक हर स्तर पर था. विशेष रूप से अशराफ मुस्लिम शासन काल में यह अपने चरम पर था. जहां उन्हे शासन प्रशासन में पहुंचने नहीं दिया जाता था और अगर कोई भूले भटके पहुंच भी गया तो उसे निकाबत विभाग द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था. ज्ञात रहें कि निकाबत विभाग का काम शासन प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करना था. मुगलों के दौर में भी उन्हें बस्ती के बाहर रखने, शिक्षा से दूर रखने का शासनादेश था. सजा और जुर्माने में भी नस्लीय और जातीय विभेद और भेदभाव कानून सम्मत था. पूरे अशराफ मुस्लिम शासन काल में सैय्यद जाति को विशेषाधिकार प्राप्त था और उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था.
Denne historien er fra September 01, 2022-utgaven av Gambhir Samachar.
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