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अस्थाई अदालतें तो कोई हल नहीं
Outlook Hindi
|March 17, 2025
लंबित मामलों के निपटारे के लिए हाइकोर्टों में जजों की तदर्थ नियुक्तियों पर भरोसा करने के बजाय मौजूदा रिक्तियों को योग्य प्रत्याशियों से भरने को तरजीह देना अहम
संविधान के अनुच्छेद 224ए के हवाले से हाइकोर्टों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति को मंजूरी देने वाला सुप्रीम कोर्ट का ताजा आदेश देश के न्यायिक परिदृश्य में एक अहम और विवादास्पद घटना है। इस कदम के पीछे लटके हुए मुकदमों के निपटारे की मंशा साफ है। ध्यान देने वाली बात है कि हाइकोर्टों में 57 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं और जजों की रिक्तियों का औसत करीब 40 फीसदी है। इसके बावजूद, यह फैसला न्यायिक प्रणाली के दीर्घकालिक प्रभाव और अखंडता को लेकर चिंताएं पैदा करता है। यह फैसला संवैधानिक सिद्धांतों और व्यवस्थागत सुधारों की जरूरत की रोशनी में गहन आलोचना की मांग करता है।
अनुच्छेद 224ए का आह्वान बरसों से निर्मित हो रहे एक संकट की तात्कालिक प्रतिक्रिया जान पड़ता है। देश की अदालतों में लटके हुए मुकदमों की संख्या बहुत ज्यादा हो चुकी है। उनमें आधे से ज्यादा मामले अकेले पांच हाइकोर्टों में लंबित हैं। अवकाश प्राप्त जजों की तदर्थ नियुक्ति का फैसला ऐसे में न सिर्फ एक व्यावहारिक समाधान है, बल्कि रिक्त न्यायिक पदों को भरने में होने वाली देरी पर एक प्रतिकूल टिप्पणी भी है। यह विलंब कॉलेजियम प्रणाली की कमियों की देन हो चाहे सरकारी निष्क्रियता का परिणाम, लेकिन इतना स्पष्ट है कि हालात ठीक नहीं हैं।
अनुच्छेद 224ए बैकलॉग मुकदमों के तात्कालिक प्रबंधन के लिए अवकाश प्राप्त जजों की तदर्थ नियुक्ति का प्रावधान करता है। इस प्रावधान का अतीत में कम इस्तेमाल हुआ है। व्यवस्था से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने के बजाय मुख्यत: विशेष जरूरतों के लिए अब तक इसका सहारा लिया गया है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य इसके प्रयोग से तत्काल राहत प्रदान करना है, हालांकि न्यायपालिका में ढांचागत कमियों को संबोधित करने के बजाय ऐसे अस्थायी उपायों पर निर्भरता कुछ बुनियादी सवाल भी खड़े करती है।
このストーリーは、Outlook Hindi の March 17, 2025 版からのものです。
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