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द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के मुद्दे केन्द्र में तो आए
DASTAKTIMES
|September 2022
ओड़िसा के मयूरभंज जिले की संथाल (आदिवासी) महिला द्रौपदी मुर्मू भारतीय गणतंत्र की पंद्रहवी राष्ट्रपति बन गई हैं।

इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठने वाली वह पहली आदिवासी और दूसरी महिला हैं। उनके निर्वाचन को भारत के आदिवासियों की अस्मिता और मुख्यधारा में उनकी मान्यता से जोड़कर देखा जा रहा है। एनडीए ने भी उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाते समय उनकी आदिवासी पहचान को ही सामने रखा। उनके आदिवासी होने के कारण मध्य प्रदेश, ओड़िसा, महाराष्ट्र, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों समेत कई अन्य प्रदेशों से भी विपक्ष के वोट उन्हें मिले। विपक्षी खेमा सतर्क था कि उनके विरोध को आदिवासियों के विरोध के रूप में न देखा जाए। स्वयं द्रौपदी मुर्मु राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद अपने संबोधन की शुरुआत 'जोहार' से की, जो कि आदिवासियों का स्वागत - सम्बोधन है। मूल रूप में आदिवासी, जिनका पूरा जीवन वनों पर निर्भर रहा है, जंगल घास-लकड़ी आदि काटते हुए 'जोहार' बोलते हैं। अब यह 'प्रणाम' के अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है, खैर।
द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के साथ ही देश के आदिवासियों और उनके हालात की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। मीडिया में नए राष्ट्रपति की आदिवासी मूल की चर्चा खूब हो रही है। आदिवासियों के लिए भी यह गर्व की बात है। अपनी इस गर्वीली पहचान को स्वयं नई राष्ट्रपति ने भी स्वीकार किया और 'जोहार' से अपना भाषण शुरू करते हुए वे यह कहना नहीं भूलीं कि 'मैं आदिवासी परिवार में पैदा हुई, जो कि हजारों साल से प्रकृति के साथ समन्वय बनाकर जीवन यापन करते आए हैं। मैंने वनों और जल-संसाधनों का महत्व समझा है। हम (आदिवासी) प्रकृति से आवश्यक संसाधन जुटाते हैं और उतने ही सम्मान से प्रकृति की सेवा करते हैं। यह संवेदनशीलता आज पूरे विश्व के लिए आवश्यक हो गई है।' उन्होंने आदिवासी कवि भीम भोई की पंक्तियां भी उद्धृत कीं।
このストーリーは、DASTAKTIMES の September 2022 版からのものです。
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