होली का त्यौहार छोटेपन-बड़ेपन की ग्रंथियों को हटाकर छोटे और बड़े की गहराई में जो सत्चित्-आनंदस्वरूप है, उसके उल्लास को, ज्ञान को, माधुर्य को जगाने का उत्सव है। यह उत्सव मानवीय संकीर्णताओं और मानवीय अहं को घुल जाने का सुंदर अवसर प्रदान करता है।
फाल्गुन की पूर्णिमा परमात्मा में विश्रांति वाले प्रह्लाद की विजय का दिवस है। जिसको सम्पदा और ऐहिक भोग के सिवाय कुछ भी सार और सत्य न सूझे, देह और भोग ही सत्य दिखें उसका नाम है 'हिरण्यकशिपु' तथा देह व भोग मिथ्या हैं, उनको निहारने-जाननेवाला परमात्मा सत्य है, यह जिसको दिखे उसका नाम है 'प्रह्लाद' ! हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद के विचारों में वैमनस्य आ गया लेकिन प्रह्लाद हिरण्यकशिपु के लिए अपने चित्त को उद्विग्न नहीं करते। वह प्रह्लाद को किसी भी प्रकार से अपने सिद्धांत में घसीटना चाहता है परंतु प्रह्लाद का कैसा निश्चय !
मेरु तो डगे पण जेनां मनडां न डगे...
सुमेरु (सबसे विशाल प्राचीन पर्वत) तो डिग जाय पर जिसका मन न डिगे... हिरण्यकशिपु के अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी जब प्रह्लाद भक्ति से न डिगा तब उसने प्रह्लाद को मारने का काम अपनी बहन होलिका को सौंपा। होलिका को आग में न जलने का वरदान मिला था। चिता में बैठी हुई होलिका की गोद में प्रह्लाद को बिठा दिया गया और चिता को आग लगा दी गयी। परंतु यह क्या! होलिका जल गयी और प्रह्लाद जीवित रह गये। बिल्कुल उलटा हो गया क्योंकि प्रह्लाद सत्य की शरण थे, ईश्वर की शरण थे।
महापुण्यदायी होली की रात्रि
Bu hikaye Rishi Prasad Hindi dergisinin February 2024 sayısından alınmıştır.
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एकमात्र सुरक्षित नौका
सद्गुरु के ये लक्षण हैं। यदि आप किसी व्यक्ति में इन लक्षणों को पाते हैं तो आप उसे तत्काल अपना गुरु स्वीकार कर लें। सच्चे गुरु वे हैं जो ब्रह्मनिष्ठ तथा श्रोत्रिय होते हैं।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
महात्मा बुद्ध कहा करते थे : ‘“आनंद ! सत्संग सुनने इतने लोग आते हैं न, ये लोग मेरे को नहीं सुनते, अपने को ही सुन के चले जाते हैं।”
मनोमय कोष साक्षी विवेक
(पिछले अंक में आपने 'पंचकोष-साक्षी विवेक' के अंतर्गत 'प्राणमय कोष साक्षी विवेक' के बारे में जाना। उसी क्रम में अब आगे...)
बड़ा रोचक, प्रेरक है शबरी के पूर्वजन्म का वृत्तांत
एक बार एक राजा रानी के साथ यात्रा करके लौट रहा था। एक गाँव में संत चबूतरे पर बैठ सत्संग सुना रहे थे और ५-२५ व्यक्ति धरती पर बैठकर सुन रहे थे।
शिष्य गुरु-पद का अधिकारी कब बनता है?
गुरुपूर्णिमा निकट आ रही है। इस अवसर पर ब्रह्मानुभवी महापुरुषों द्वारा अपने शिष्यों की गढ़ाई और सत्शिष्यों द्वारा ऐसी कसौटियों में भी निर्विरोधता, अडिग श्रद्धा-निष्ठा और समर्पण युक्त आचरण का वृत्तांत सभी गुरुभक्तों के लिए पूर्ण गुरुकृपा की प्राप्ति का राजमार्ग प्रशस्त करनेवाला एवं प्रसंगोचित सिद्ध होगा।
एक राजपुत्र की आत्मबोध की यात्रा
पराशरजी अपने शिष्य मैत्रेय को आत्मज्ञानबोधक उपदेश देते हुए एक राजपुत्र की कथा सुनाते हैं :
गुरुद्वार की उन कसौटियों में छुपा था कैसा अमृत!
लौकिक जीवन में उन्नत होना हो चाहे आध्यात्मिक जीवन में, निष्काम भाव से किया गया सेवाकार्य मूलमंत्र है।
सर्वपापनाशक तथा आरोग्य, पुण्यपुंज व परम गति प्रदायक व्रत
१७ जुलाई को देवशयनी एकादशी है। चतुर्मास साधना का सुवर्णकाल माना गया है और यह एकादशी इस सुवर्णकाल का प्रारम्भ दिवस है। ऐसी महिमावान एकादशी का माहात्म्य पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत से:
गुरुमूर्ति के ध्यान से मिली सम्पूर्ण सुरक्षा
अनंत-अनंत ब्रह्मांडों में व्याप्त उस परमात्म-चेतना के साथ एकता साधे हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष सशरीर ब्रह्म होते हैं। ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्... ऐसे चिन्मयस्वरूप गुरु के पूजन से, उनकी मूर्ति के ध्यान से शिष्य के अंतः स्थल में उनकी शक्ति प्रविष्ट होती है, जिससे उसके पूर्व के मलिन संस्कार नष्ट होने लगते हैं और जीवन सहज में ही ऊँचा उठने लगता है।
गुरुभक्ति की इतनी भारी महिमा क्यों है?
धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः । धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ॥