![रोग का रहस्य और निरोगता का मूल](https://cdn.magzter.com/1400234238/1665851606/articles/46h8gN8941667546189560/1667546565530.jpg)
* रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है।
* रोग पर वही विजय प्राप्त कर सकता है जो शरीर से असंगता का अनुभव कर लेता है
* प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिंतन, अप्राप्त की रुचि और प्राप्त से अरुचि यही मानसिक रोग है।
* वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और आशारहितता ही आरोग्यता है। देहभाव का त्याग ही सच्ची औषधि है।
* रोग प्राकृतिक तप है। उससे डरो मत। भोग की रुचि का नाश तथा देहाभिमान गलाने के लिए रोग आता है। इस दृष्टि से रोग बड़ी आवश्यक वस्तु है।
Bu hikaye Rishi Prasad Hindi dergisinin October 2022 sayısından alınmıştır.
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![एकमात्र सुरक्षित नौका](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/vDQky4aXE1718370671175/1718370829409.jpg)
एकमात्र सुरक्षित नौका
सद्गुरु के ये लक्षण हैं। यदि आप किसी व्यक्ति में इन लक्षणों को पाते हैं तो आप उसे तत्काल अपना गुरु स्वीकार कर लें। सच्चे गुरु वे हैं जो ब्रह्मनिष्ठ तथा श्रोत्रिय होते हैं।
![जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/RDQ9zJ18D1718369007310/1718370592147.jpg)
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
महात्मा बुद्ध कहा करते थे : ‘“आनंद ! सत्संग सुनने इतने लोग आते हैं न, ये लोग मेरे को नहीं सुनते, अपने को ही सुन के चले जाते हैं।”
![मनोमय कोष साक्षी विवेक](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/hUDCuaXm51718368595872/1718368997050.jpg)
मनोमय कोष साक्षी विवेक
(पिछले अंक में आपने 'पंचकोष-साक्षी विवेक' के अंतर्गत 'प्राणमय कोष साक्षी विवेक' के बारे में जाना। उसी क्रम में अब आगे...)
![बड़ा रोचक, प्रेरक है शबरी के पूर्वजन्म का वृत्तांत](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/K0M58HZ3O1718368293279/1718368594981.jpg)
बड़ा रोचक, प्रेरक है शबरी के पूर्वजन्म का वृत्तांत
एक बार एक राजा रानी के साथ यात्रा करके लौट रहा था। एक गाँव में संत चबूतरे पर बैठ सत्संग सुना रहे थे और ५-२५ व्यक्ति धरती पर बैठकर सुन रहे थे।
![शिष्य गुरु-पद का अधिकारी कब बनता है?](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/GeoPJXZvd1718367953131/1718368234067.jpg)
शिष्य गुरु-पद का अधिकारी कब बनता है?
गुरुपूर्णिमा निकट आ रही है। इस अवसर पर ब्रह्मानुभवी महापुरुषों द्वारा अपने शिष्यों की गढ़ाई और सत्शिष्यों द्वारा ऐसी कसौटियों में भी निर्विरोधता, अडिग श्रद्धा-निष्ठा और समर्पण युक्त आचरण का वृत्तांत सभी गुरुभक्तों के लिए पूर्ण गुरुकृपा की प्राप्ति का राजमार्ग प्रशस्त करनेवाला एवं प्रसंगोचित सिद्ध होगा।
![एक राजपुत्र की आत्मबोध की यात्रा](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/ZuX4KMSqV1718367439479/1718367918777.jpg)
एक राजपुत्र की आत्मबोध की यात्रा
पराशरजी अपने शिष्य मैत्रेय को आत्मज्ञानबोधक उपदेश देते हुए एक राजपुत्र की कथा सुनाते हैं :
![गुरुद्वार की उन कसौटियों में छुपा था कैसा अमृत!](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/OnAM8g8xR1718366898821/1718367427330.jpg)
गुरुद्वार की उन कसौटियों में छुपा था कैसा अमृत!
लौकिक जीवन में उन्नत होना हो चाहे आध्यात्मिक जीवन में, निष्काम भाव से किया गया सेवाकार्य मूलमंत्र है।
![सर्वपापनाशक तथा आरोग्य, पुण्यपुंज व परम गति प्रदायक व्रत](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/o31cJRhEe1718365463142/1718365998333.jpg)
सर्वपापनाशक तथा आरोग्य, पुण्यपुंज व परम गति प्रदायक व्रत
१७ जुलाई को देवशयनी एकादशी है। चतुर्मास साधना का सुवर्णकाल माना गया है और यह एकादशी इस सुवर्णकाल का प्रारम्भ दिवस है। ऐसी महिमावान एकादशी का माहात्म्य पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत से:
![गुरुमूर्ति के ध्यान से मिली सम्पूर्ण सुरक्षा](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/yGLi0B8GL1718365013143/1718365434205.jpg)
गुरुमूर्ति के ध्यान से मिली सम्पूर्ण सुरक्षा
अनंत-अनंत ब्रह्मांडों में व्याप्त उस परमात्म-चेतना के साथ एकता साधे हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष सशरीर ब्रह्म होते हैं। ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्... ऐसे चिन्मयस्वरूप गुरु के पूजन से, उनकी मूर्ति के ध्यान से शिष्य के अंतः स्थल में उनकी शक्ति प्रविष्ट होती है, जिससे उसके पूर्व के मलिन संस्कार नष्ट होने लगते हैं और जीवन सहज में ही ऊँचा उठने लगता है।
![गुरुभक्ति की इतनी भारी महिमा क्यों है?](https://reseuro.magzter.com/100x125/articles/6486/1724379/63e4wrm0V1718364679423/1718365008678.jpg)
गुरुभक्ति की इतनी भारी महिमा क्यों है?
धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः । धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ॥