नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
Kendra Bharati - केन्द्र भारती|Kendra Bharati - August 2022 Issue
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' - इस उद्घोष से भारतवर्ष में शक्ति का जागरण करनेवाले भारत माँ के क्रान्तिकारी सपूत नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म २३ जनवरी १८६७ को जानकीनाथ और प्रभाती बोस के घर में जब हुआ तब शायद ही उनके माता-पिता ने कभी सोचा हो कि उनका यह छठा पुत्र और नौवां बच्चा भारत के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़नेवाला है। हालांकि माता-पिता को यह मअनुभव होने में देर नहीं लगी कि उनका यह पुत्र सुभाषचन्द्र अपने बाकी भाई और बहनों से बहुत अलग था।
रणजीत सिंह
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

सुभाष के पिता भी प्रतिभावान व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनके पूर्व बंगाल के राज दरबार में महत्त्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे माता भी और कलकत्ता के धनी एवं प्रतिष्ठित दत्त परिवार से ताल्लुक रखती थी। उनकी माता और पिता के वैवाहिक गठबंधन से पहले जानकीनाथ (सुभाष के पिता) का तीक्षण बुद्धि परिक्षण किया गया था। इसके पश्चात ही प्रभाती बोस (सुभाष की माता के) पिता गंगा नारायण दल ने अपनी पुत्री का विवाह किया था। मातृभूमि के प्रति प्रेम और राजनीतिक विचारधारा सुभाष को अपने पिता से ही मिली क्योंकि उनके पिता विभिन्न महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पड़ों पर रहे और असहयोग आंदोलन के समय अपने पदों से इस्तीफा देकर खादी और राष्ट्रीय शिक्षा जैसे रचनात्मक गतिविधियों में भाग लिया। सुभाष के पिता के हृदय में गरीबों के लिए भी एक विशेष स्थान था और अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने अपने पुराने नोकरों और आश्रितों के लिए एक विशेष वित्तीय प्रावधान किया था।

पाँच वर्ष की आयु में सुभाष को कटक के एक अंग्रेजी स्कूल में भेजा गया जहाँ पे सात वर्ष तक रहे। यूरोपीय तर्ज पर चलनेवाले इस स्कूल की शिक्षा ने सुभाष को ब्रिटिश दृष्टिकोण से अवगत करावा और अंग्रेजों द्वारा भारतीय छात्रों के साथ किए जानेवाले भेदभाव को जानने में मदद की। परन्तु वहाँ जाकर सुभाष में आत्मविश्वास की भाव का विकसित हुई। इसके बाद उन्होंने भारतीय जीवनशैली और भारतीय संस्कृति प्रचलित एक भारतीय स्कूल में जाना शुरू किया। यहीं पर, उनके जीवन पर पहला बड़ा प्रभाव प्रधानाध्यापक बैनी माथवदास के व्यक्तित्व का पड़ा। अपने आदर्शो, सिद्धान्तों और मानवीय मूल्यों को जीनेवाले महान व्यक्तित्व के रूप सुभाष का जीवन गठित होने लगा।

सुभाष के जीवन में दूसरा बड़ा प्रभाव स्वामी विवेकानन्द के भाषणों और लेखन के रूप में आया १५ वर्ष की आयु तक आते-आते सुभाष ने स्वामी विवेकानन्द्र, रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्यों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों और डायरियों को पढ़ना प्रारम्भ किया और उनकी शिक्षाओं को आत्मसात किया।

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