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मन्त्र साधना में न्यास का महत्त्व
Jyotish Sagar
|November 2025
साधना तब ही सफल हो सकती है, जब साधक स्वयं देवता बनकर जप करे। कहा गया है कि न्यास से देवत्व प्राप्त होता है और देवत्व प्राप्त होने के बाद जब मन्त्र साधना की जाती है, तब शीघ्र ही मन्त्र सिद्धि की प्राप्ति होती है। बिना न्यास के किए गए जप को आसुर जप तथा निष्फल कहा गया है। बिना न्यास करने पर की गई मन्त्र साधना में विघ्न बाधाएँ आती हैं। कुलप्रकाशतन्त्र में कथन है कि जो न्यास और कवच से सुरक्षित होकर मन्त्र जप करता है, उसको देखकर ही समस्त विघ्न भाग जाते हैं—
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यो न्यासकवचच्छन्नो मन्त्रं जपति प्रिये।
विघ्ना दृष्ट्वा पलायन्ते सिंहं दृष्ट्वा यथा गजाः।।
देवतासाधक ही देवता का यजन करे। अदेव साधक देव का यजन कदापि नहीं करे। न्यास से देवात्मक बनकर देव बने। तत्पश्चात् देव का यजन करे—
देव एव यजेद् देवं नादेवो देवमर्चयेत्।
न्यासात् तदात्मको भूत्वा देवो भूत्वा तु तं यजेत्।।
'अस्' धातु में 'नि' उपसर्ग लगाने से 'न्यास' शब्द का निर्माण हुआ है। 'अस्' का अर्थ है 'स्थापन करना'। न्यास के अन्तर्गत मन्त्र आदि का शरीर के विभिन्न अंगों में स्थापन किया जाता है और देवत्व प्राप्त किया जाता है। न्यास के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों को साधना की भावना से परिपूर्ण किया जाता है।
न्यास के प्रकार
न्यास मन्त्र के देवता के अनुसार अनेक प्रकार के होते हैं। शक्ति के मन्त्रों में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार के न्यास प्रयुक्त होते हैं—
1. मातृका न्यास,
2. ऋष्यादि न्यास,
3. षडङ्ग न्यास,
4. मूल मन्त्र न्यास,
5. व्यापक न्यास एवं
6. षोढ़ा न्यास।
Bu hikaye Jyotish Sagar dergisinin November 2025 baskısından alınmıştır.
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