यह कहानी नहीं, एक सैलून है। सैलून, जहां आगे और पीछे यानी ठीक आमने-सामने की दीवारों पर आईना होता है। दोनों के बीच में सिर झुकाए बैठा हुआ एक किरदार, जिसके बाल झड़ रहे होते हैं। आईने के भीतर आईना। उसके भीतर आईना। हर आईने में वही किरदार। एक अनंत सिलसिला होता है किरदार के भीतर किरदार का। ऐसा ही एक किरदार दूसरे किरदार से मिलने कलकत्ता के एक अस्पताल में कुछ साल पहले पहुंचा था। पहला किरदार अनाम था। दूसरा प्रदीप कुमार बनर्जी उर्फ पीके, महान फुटबॉलर। मुलाकाती कैंसर का मरीज था और उसकी जिंदगी में केवल पांच दिन शेष थे। पीके कैंसर को मात दे चुके थे पर फालिज के मारे भर्ती थे। वह शख्स पीके का मुरीद था। उन्हें जीते जी एक बार देख लेना चाहता था। पीके उसका आदर्श थे। उसने डॉक्टर से चिरौरी की। डॉक्टर ने पीके को कहा कि कोई बेतरह उनसे मिलना चाहता है। जीर्ण-शीर्ण पीके उससे मिलने को तैयार हो गए। मुलाकात हुई। कुछ हफ्ते बाद पीके को उस आदमी की अचानक याद आई। उन्होंने डॉक्टर को फोन लगा दिया। मुलाकाती का हाल पूछने पर डॉक्टर ने बताया कि वह तो पीके से मुलाकात के सतरह दिन बाद ही गुजर गया। मरते वक्त उसने कहा था, “काश, मैं पीके से और पहले मिल लिया होता, तो शायद और जी जाता।' डॉक्टर ने फिर अचरज में फोन पर पीके से पूछा, “लेकिन आपने कौन सी घुट्टी उसे पिला दी थी कि वह पांच दिन के बजाय सतरह दिन जी गया?" पीके बोले: “जिंदगी और मौत से बचा नहीं जा सकता, इनसे डरने की भी कोई जरूरत नहीं है। हम नहीं जानते कितने और दिन हमें जीना है, इसलिए हर दिन खुलकर जियो।"
Bu hikaye Outlook Hindi dergisinin July 24, 2023 sayısından alınmıştır.
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