12वीं फेल की कहानी में ऐसा क्या खास लगा कि इसे परदे पर उतारना जरूरी लगा?
यह हम सबकी कहानी है। जो लोग छोटे शहरों से आए हैं, जो अपना रास्ता नहीं खोज पाते, लेकिन उनमें संघर्ष करने का माद्दा होता है, यह फिल्म उनकी कहानी कहती है। मैं समझता हूं, ऐसे लोग जो छोटे शहरों से बड़े शहरों में आते हैं, उन लोगों का जज्बा ही अलग होता है। आप भी मनोज हैं, मैं भी मनोज हूं। जो बड़े शहर आकर भी अपना रास्ता नहीं भूले, भटके नहीं यह उन सब लोगों की कहानी है। मैं जब कश्मीर से निकला था और मैंने अपने पिता से कहा था कि मुझे फिल्में बनानी हैं, तो वे खूब नाराज हुए थे। उन्होंने डांट कर कहा था, “भूखा मर जाएगा वहां, खाएगा क्या।” फिर भी मैं बंबई पहुंचा। जब मैं 1978 में ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुआ तो पिताजी को बताया कि मैं ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुआ हूं। वे भी खुश हो गए। खूब वाह-वाह किया। लेकिन फिर वही सवाल, “अच्छा बताओ इसमें पैसे कितने मिलेंगे।” मैंने बताया पैसे नहीं हैं। तो नाराज हो गए और बोले, “फिर इतना खुश क्यों हैं, जब पैसे ही नहीं मिलेंगे।” यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि हम लोग वहां से आए हैं, जहां रोजगार महत्वपूर्ण है। मैं आज भी अपनी आत्मा, अपना जमीर बेचे बिना फिल्म बना रहा हूं। इसलिए मुझे लगा परदे पर यह कहानी आनी चाहिए। यह किसी एक बंदे की कहानी नहीं है। कोई तो होना चाहिए, जो बता सके कि दुनिया में ऐसे लोग भी रहते हैं।
फिल्म बनाते वक्त का कोई खास वाकया या अनुभव, जो याद रह गया?
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आंबेडकर और गांधी
भारत निर्माण के दोनों युग-प्रवर्तकों में मतभेदों के बावजूद लक्ष्य के प्रति काफी स्पष्टता थी
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आइपीएल में इस बार बहुत सी बातें पहली बार हैं, पहली-पहली बार के ये अनुभव दर्शकों को रोमांचित भी कर रहे हैं और आनंद भी दे रहे
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एक धारणा है, जो इस समुदाय के प्रति होती है, एक आवरण जो इस समुदाय को घेरे रहता है। इस आवरण की वजह से कयास हैं। जहां भी कयास होते हैं, वहां परिणाम गलत होते हैं।
स्त्री नहीं समाज का संघर्ष
वरिष्ठ कवि अरुण कमल की ये पंक्तियां पुस्तक के मूल को बहुत अच्छे से परिभाषित करती है। साहित्य-समालोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डॉ. राजीव रंजन गिरि द्वारा संपादित यह पुस्तक स्त्रीवाद पर एक सारगर्भित संकलन है।
राजधानी में विस्थापन
पलायन और विस्थापन इस दौर के सबसे ज्यादा भयावह शब्द है। वैश्विक स्तर पर कभी वर्चस्व की लड़ाई, कभी जमीन के टुकड़े पर हक, कभी सौंदर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दिया जाना बहुत ‘साधारण’ होता जा रहा है।
राजनीतिक किस्से
राजनीति में शान्ता कुमार उच्च मूल्यों के पक्षधर नेताओं में से एक रहे हैं। 2019 में चुनावी राजनीति से संन्यास लेने के बाद उन्होंने अपने छह दशक के राजनीतिक अनुभव को पाठको के साथ साझा करने का निर्णय लिया। अब आत्मकथा के रूप में यह पुस्तक सामने है।
खोई जमीन पाने की लड़ाई
1990 और 2000 के दशक में उत्तर प्रदेश में दलित वोटों पर एकाधिकार रखने वाली और राजनीतिक चर्चा के केंद्र में रहने वाली मायावती की अगुआई वाली बहुजन समाज पार्टी के लिए ये चुनाव प्रासंगिक बने रहने की चुनौती
टूटेगा 9-2-11 फॉर्मूला
चुनावी फिजा में फिर कांग्रेस के पीछे लगा महादेव ऐप घोटाले का जिन्न