हमारे देश में समस्याएं कई परतों में खुलती हैं. जिस समय कोरोना यूरोपीय देशों में हाहाकार मचा रहा था उस समय भारत की पढ़ीलिखी जनता इस गलतफहमी और आत्मविश्वास की शिकार थी कि भारत इस से मुक्त रहेगा क्योंकि यहां की हवाओं में तो वैदिक संस्कृति प्रवाहित होती है और भारत की गाय जो मीथेन गैस पीछे के रास्ते छोड़ती है, वह गैस ही काफी है कोरोना के कणों को खत्म करने के लिए. यही कारण था कि डिजिटली जनता घर की थालियां बजा कर कोरोना के कान फोड़ लेने और अंधेरे में दिए जला कर कोरोना को अंधा बनाने के लिए विदेशी एंड्रौयड फोन से सोशल मीडिया पर पोस्ट डालने की ताबड़तोड़ कोशिशें कर रही थी.
मजदूर बने आधुनिक अछूत
ठीक उसी समय देश का सब से निचला गरीब प्रवासी तबका भूखेप्यासे नंगेपांव अपने घरों की तरफ पैदल चलने के लिए मजबूर हो रहा था. यह सिर्फ इसलिए नहीं कि सरकार ने फैसला लेने में कटुता दिखाई बल्कि इसलिए भी क्योंकि देश की ट्विटर और इंस्टाग्राम वाली सशक्त आबादी को देश की स्थिति की थोड़ी सी भी भनक नहीं थी और अगर उन्हें थी भी तो जो लोग इस फैसले के बाद भुखमरी से बदहाल होने वाले थे, उन से उन की कोई हमदर्दी नहीं थी. उन की मानें तो ये वही लोग हैं जो मरने के लिए पैदा होते हैं, जिन का काम ही निचला है. सफेद कौलर पर टाई लगाने वाले अधिकांश लोगों का इस आबादी से रिश्ता महज इतना है कि जो मलमूत्र हम अपने संडासों में त्याग आते हैं उसे ये मजदूर जहरीले गटरों में उतर कर साफ करते हैं.
विकास, अच्छे दिन, सुपरपावर और महान संस्कृति का भ्रम हमारे दिलोदिमाग में इस कदर भरा हुआ था कि सरकार द्वारा हंटर के जोर पर लिए गए फैसले भी इन्हीं भ्रमों की अनुभूति महसूस करा रहे थे. यह एक संयोग है कि जिस समय देश की पढ़ीलिखी जनता इस बहस में फंसी थी कि विदेश में कोरोना सांप खाने से आया या चमगादड़ खाने से, उस समय अपने देश के लाखों गरीब मीलों दूर सरकारी कुप्रबंधन के कारण पैदल चलने को मजबूर हो रहे थे. ये सिर्फ पैदल चल ही नहीं रहे थे बल्कि सरकारी कुप्रबंधन के कारण सड़कों और पटरियों पर उन के नरसंहार भी हो रहे थे. लेकिन देश का ऊपरी तबका सरकार से सवाल करने के बजाय उलटा दोष इन्हीं मजदूरों पर धर रहा था.
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