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अहिंसा के प्रवर्तक भगवान् महावीर
Jyotish Sagar
|April 2024
जैन धर्म की चार संज्ञाओं का बहुत महत्त्व है। प्रथम संज्ञा है 'जिनेन्द्र' अर्थात् जिन्होंने इन्द्रियों को जीतकर अपने वश में कर लिया है। दूसरी ‘अरिहंत’ अर्थात् जिन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया है। तीसरी संज्ञा 'तीर्थंकर' है।
जैनधर्म में तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और मोक्ष हैं। अंतिम एवं 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर जैनधर्म के आद्य प्रवर्तक अथवा संस्थापक नहीं, अपितु पूर्व प्रचलित जैनधर्म को आगे बढ़ाने वाले थे। पहले तीर्थंकर ऋषभदेव के समय जिस तरह अनेक प्रकार की मूढ़ताएँ लोकजगत् में व्याप्त थीं। उसी प्रकार महावीर के समय में भी धर्म के नाम पर नरमेध, गोमेध, अश्वमेध आदि हिंसापूर्ण यज्ञों की प्रचुरता थी तथा 'याज्ञिकी हिंसा न भवति' जैसे श्रुति वाक्यों से उनका समर्थन किया जाता था। महावीर ने इस स्थिति को बदलने के लिए 30 वर्ष की आयु में ही राजमहल के सुखों को त्याग दिया। मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन दीक्षा लेकर दिगम्बर मुद्राधारी साधु बन गए। उन्होंने मौन रखकर 12 वर्ष तक तपस्या की। 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें केवल्य का ज्ञान प्राप्त हो गया। उन्होंने वर्षों विहार करके हिंसापूर्ण यज्ञों का निषेध किया। उनके उपदेशों से हिंसापूर्ण यज
Esta historia es de la edición April 2024 de Jyotish Sagar.
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