धार्मिक देन निकम्मों की संस्कृति
Sarita|March Second 2024
धर्म की दुकानदारी चलती रहे, इस के लिए तमाम पंडों ने धर्म के नाम पर रहने, खानेपीने, रहनसहन, जन्ममरण, शादी, नौकरी, रोजगार, धंधा, समाज को संचालित करने के असीम अधिकार प्राप्त कर इन्हें वास्तविक जीवन में लागू करवा दिया है, हालांकि, हमारी यह कार्यसंस्कृति महज दिखावटी महानता है. यह और कुछ नहीं, बस, निकम्मों की फौज खड़ी कर रही है.
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धार्मिक देन निकम्मों की संस्कृति

धर्मनिरपेक्ष संविधान की रक्षा के लिए कहने को बनाए गए नए संसद भवन का उद्घाटन नरेंद्र मोदी ने पूरे धार्मिक रीतिरिवाजों से किया, जैसे एक सम्राट सिंहासन पर ऋषिमुनियों की उपस्थिति में गद्दी पर बैठ रहा हो. इस अवसर पर आदिवासी दलित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी नहीं बुलाया गया क्योंकि वह विधिविधान के खिलाफ होता.

मुंबई पर आतंकी हमला होने के एक महीने बाद मुंबई के जब ताज और ओबराय होटल खुले, दोनों जगहों पर लोगों ने मृत आत्माओं की शांति और बुरी छायाओं से मुक्ति के लिए पूजाअर्चना व विशेष धार्मिक अनुष्ठान किया. इस विशेष पूजा अनुष्ठान में अनेक कंप्यूटर कंपनियां चलाने वाले टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा भी शामिल हुए थे.

भाजपा सरकार आमतौर पर मंत्रिमंडल की पहली बैठक की शुरुआत गणेश की पूजाअर्चना से करती है. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने पत्नी के साथ नर्मदा नदी के तट पर पहुंच कर नर्मदा मां का अभिषेक किया, चुनरी ओढ़ाई, जबकि वे दूसरी पार्टी के आए विधायकों के दलबदल के कारण मुख्यमंत्री बने थे.

चुनावों में टिकट पाने, जीतने के लिए नेताओं द्वारा तरहतरह के धार्मिक हथकंडे आजमाए जाते हैं. हाल ही में भारत के चंद्रयान 3 की सफलता और क्रिकेट विश्वकप मैचों के लिए पूजापाठ, हवन अनुष्ठान कराने की खबरें चर्चा में रहीं.

हमारे देश में लोगों की कार्यसंस्कृति पर किस कदर धार्मिक रंग चढ़ा हुआ है, यह साफ दिखाई दे रहा है और वैज्ञानिक तक इस से निकल नहीं पा रहे हैं. लोगों की कार्यसंस्कृति धर्म से बेहद जुड़ी हुई हैं. यह संस्कृति आज की नहीं, सदियों पुरानी है. यहां पगपग पर धर्म के रीतिरिवाजों, रूढ़ियों की छाप दिखाई देती है. एक पैर चांद पर तो दूसरा रूढ़िवाद की बेड़ियों में जकड़ा नजर आता है.

पिछले कुछ समय से अमीर देशों में बाहरी लोगों का आगमन काफी बढ़ा है. वहां भी लोगों के कामकाज में पिछले देशों वाला धार्मिक असर साफ दिखाई पड़ने लगा है. विविध धर्म, संस्कृतियों के कारण कहीं कहीं तो लोगों का टकराव सामने आ रहा है तो कहीं नएपुराने के घालमेल की इजाजत दी जा रही है.

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लाइलाज बीमारी कैंसर का हिंदी फिल्मों से ताल्लुक कोई 60 साल पुराना है. 1963 में सी वी श्रीधर निर्देशित राजकुमार, मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार अभिनीत फिल्म 'दिल एक मंदिर' में सब से पहले कैंसर की भयावहता दिखाई गई थी लेकिन 'आनंद' के बाद कैंसर पर कई फिल्में बनीं जिन में से कुछ चलीं, कुछ नहीं भी चलीं जिन की अपनी वजहें भी थीं, मसलन निर्देशकों ने कैंसर को भुनाने की कोशिश ज्यादा की.

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