एक इंच का भी फासला नहीं था बंदूक की नली और उसकी कनपटी के बीच बीच में अगर कुछ था तो उसकी पहचान बन चुका सिर पर बंधा वह सफेद साफा, जो ठीक उसी तरह बंधा था जैसे उसके तांगेवाले पिता इलाहाबाद की चिलचिलाती गर्मियों में अरसा पहले बांधा करते थे. अचानक न जाने कहां से निकली एक बंदूक, दहकती रोशनी की कौंध, ताबड़तोड़ गोलियों की बौछार और उत्तर प्रदेश का दुर्दीत माफिया डॉन हट्टा-कट्टा अतीक अहमद और उसका भाई अशरफ जमीन पर ढेर हो गए. उनके साथ अपराध का वह साम्राज्य भी ढह गया जिसने लंबे वक्त से सत्ता की राजनीति के दूसरे हिस्सों का वेश धारण कर लिया था - इसमें लोकसभा का एक और उत्तर प्रदेश विधानसभा के कई कार्यकाल शामिल हैं. लाइव टीवी पर माफिया - सियासतदां की हत्या इतनी नाटकीय थी कि दुनिया भर के मीडिया में उसे जगह मिली, और शायद उस नैरेटिव से अनचाहा भटकाव भी थी जिसका ताना-बाना उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बुन रहे हैं. लेकिन गैर-इरादतन जुड़ाव के हिसाब से भी तस्वीर का वह ठहरा हुआ टुकड़ा ऐसा लम्हा बन गया है जिसमें कानून की एक महाकाव्यात्मक लड़ाई अपनी काली, सफेद और धूसर रंगतों के साथ समाहित है. यह लड़ाई माफियाओं के गहरे रचे-बसे उस नेटवर्क के खिलाफ है जिसने दशकों से राज्य की राजनैतिक अर्थव्यवस्था का दम घोंट रखा है. यह वह लड़ाई है जिसने अराजक जंगल के कुछ हिस्सों की सफाई कर दी है, जबकि उसकी जगह सवालों का एक बादल भी छोड़ दिया है. इस लड़ाई ने इंसाफ की परिभाषा को कगार पर धकेलकर उसका एक नया अध्याय लिख दिया है.
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