यह तो अनेक मामलों में देखा गया है कि जिस उद्देश्य से योजना लाई जाए, कार्यान्वयन में नतीजे कुछ और दे जाए या मुकम्मल तौर पर खरी न उतरे। लेकिन ऐसा कम ही देखा गया है कि जिस घोषित उद्देश्य से कोई योजना लाई जाए, वही सवालिया घेरे में आ जाए। 2017 के बजट में तब के वित्त मंत्री दिवंगत अरुण जेटली ने चुनावी बॉन्ड की घोषणा की थी तो इसे बड़े चुनाव सुधार की तरह पेश किया था। उन्होंने इसे न सिर्फ पारदर्शिता लाने, बल्कि राजनीति में काले धन का प्रवाह रोकने का भी साधन बताया था। लेकिन उन्हीं दलीलों को सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी को ऐतिहासिक फैसले में नामंजूर कर दिया और केंद्र की चुनावी बॉन्ड योजना को “असंवैधानिक” करार दिया। पांच न्यायाधीशों की पीठ का नेतृत्व कर रहे प्रधान न्यायाधीश डी.वाइ. चंद्रचूड़ ने कहा कि गोपनीयता के आवरण में घिरा चुनावी बॉन्ड बोली और अभिव्यक्ति की आजादी तथा सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
सरकार का यह तर्क भी आनुपातिक सिद्धांत के आधार पर स्वीकार नहीं किया गया कि चुनावों में काले धन के प्रवाह को घटाने के लिए इस योजना की आवश्यकता थी। अदालत ने कहा कि इसमें चंदा देने वालों की निजता के अधिकार या गोपनीयता को तरजीह दी गई लेकिन लोगों के अपने उम्मीदवार के बारे में जानकारी के अधिकार को कमतर माना लिया गया। प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ और न्यायाधीश संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की शीर्ष अदालत की पीठ ने मामले में दो अलग-अलग लेकिन सर्वसम्मत फैसले सुनाए।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “मतदान के विकल्प का स्वतंत्र होकर इस्तेमाल करने के लिए राजनैतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानकारी आवश्यक है।” अदालत ने भारतीय स्टेट बैंक को निर्देश दिया कि वह चुनाव आयोग को छह साल पुरानी योजना में चंदा देने वालों के नाम और 12 अप्रैल, 2019 से अब तक खरीदे गए चुनावी बॉन्ड के विवरण मुहैया कराए। अदालत ने चुनाव आयोग को 13 मार्च तक इन विवरणों को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करने का आदेश दिया है। फिर अब तक न भुनाए गए बॉन्ड राजनैतिक दलों को वापस करना होगा और बैंक बॉन्ड खरीदने वाले के खाते में रकम वापस कर देगा।
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