अर्थव्यवस्था के मामले में 2020 के बाद के तीन साल नरेंद्र मोदी सरकार के लिए मुश्किल रहे. पहले कोविड-19 की वजह से लॉकडाउन लगाना पड़ा जिससे काम-धंधों का भट्टा बैठ गया और लाखों लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे. फिर जब लगा कि महामारी उतार पर है, तो फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूस के हमले ने दुनिया भर में भू-राजनैतिक तनाव बरपा दिया, जिसका नतीजा दुनिया के कई हिस्सों में बहुत ज्यादा महंगाई में और अनाज की तंगी की शक्ल में सामने आया. ईंधन और जिंसों की कीमतें खासकर युद्ध के शुरुआती महीनों में आसमान छू लगीं और भारत का आयात बिल बहुत बढ़ गया. तेल की कीमतें हालांकि उसके बाद नरम पड़ गईं, पर अमेरिका और यूरोप के कुछ हिस्सों में मंदी का खतरा मंडरा रहा है और भारत का राजकोषीय घाटा यानी देश की आमदनी और खर्च का अंतर काफी बढ़ गया है. रुपया कमजोर हुआ और निर्यात में गिरावट आई तो व्यापार घाटा (निर्यात और आयात के मूल्य का अंतर) भी बढ़कर दिसंबर में एक साल पहले के इसी महीने के मुकाबले 23.89 अरब डॉलर (1.94 लाख करोड़ रुपए) पर पहुंच गया. रुपया जुलाई में पहली बार एक डॉलर के मुकाबले 80 रु. के निशान से ऊपर चला गया और तब से उबर नहीं पाया, जबकि निर्यात दिसंबर में एक साल पहले के इसी महीने के मुकाबले 12.2 फीसद घट गया.
यही चीजें फिर आर्थिक क्षेत्र में मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड बन गईं. हाल ही आए कुछ अनुमान मौजूदा वित्त वर्ष के लिए जीडीपी की वृद्धि दर 7 फीसद बताते हैं, जो ज्यादातर महामारी के बाद सेवा क्षेत्र के फिर शुरू होने का नतीजा है. भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना हुआ है, पर हर साल श्रम बाजार में दाखिल होने वाले लाखों लोगों के लिए पर्याप्त नौकरियों के सृजन की खातिर उसे 8 फीसद या उससे ज्यादा की दर से बढ़ना होगा.
Diese Geschichte stammt aus der February 08, 2023-Ausgabe von India Today Hindi.
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