अभी पिछले हफ्ते ही तो! जनवरी की ठिठुरा देने वाली ठंड का एक दिन बिहार में तराई वाले एक जिले समस्तीपुर का पितौंझिया गांव. 94 साल के देवचंद्र झा दरवाजे पर आग तापते मिलते हैं. चुपचाप सिर झुकाए बैठे, ठंड से मुकाबला करते हुए, जैसे बाहर की दुनिया से उन्हें कोई वास्ता न हो. लेकिन कर्पूरी ठाकुर का नाम सुनते ही चौंक उठे. चेहरे पर मुस्कान आ गई. झट उठे और दालान की ओर बढ़ते हुए बोले, "आइए, यहां बैठकर बतियाते हैं."
“कर्पूरी ठाकुर मेरे देवता थे. साक्षात् महादेव. मैं रोज उनकी पूजा करता हूं." यह कहने वाले झा उस मैथिल ब्राह्मण जाति से आते हैं, जो बिहार में पहली दफा पिछड़ा-अति पिछड़ा आरक्षण लागू करने के लिए कर्पूरी ठाकुर की विरोधी रही है और उन्हें सवर्ण विरोधी मानती रही है. वे कर्पूरी ठाकुर के संपर्क में कैसे आए? इस सवाल पर झा बताते हैं, "मैं उन्हीं के गांव पितौंझिया के प्राइमरी स्कूल का छात्र था. वे हेडमास्टर थे. मैं बहुत गरीब था. पिता ने दूसरी शादी कर ली थी और हम लोग ननिहाल में रहने लगे थे. गरीबी इतनी कि मैं भगवा (लंगोट) पहनकर स्कूल जाता. एक रोज उन्होंने पास बुलाकर पूछा तो मैंने पूरी कहानी सुना दी."
अगले दिन कर्पूरी ठाकुर समस्तीपुर शहर से उनके लिए दो पैंट और दो गोल गले के कुर्ते लेकर आए, उन्हें पास बुलाया. एक जोड़ा ह पहनाया और दूसरा हाथ में थमा दिया. फिर वे उन्हें अपनी मां रामदुलारी देवी के पास ले गए और कहा, "यह लड़का स्कूल की छुट्टी के बाद यहां आएगा, इसे भोजन करा दिया करना. "फिर झा रोज शाम वहीं खाने लगे. उन्हीं के शब्दों में, "वे तो गरीब परवर थे. गरीब परिवार के हर छात्र की इसी तरह मदद करते थे, वह किसी भी जाति का हो."
अब याद कीजिए वह प्रसंग. 11 नवंबर, 1978 को बिहार के मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों-अतिपिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया तो सवर्णों का गुस्सा फूट पड़ा था. अत्यंत पिछड़ी नाई जाति में जन्म लेने वाले इस बड़े राजनेता को मां की भी गालियां दी गईं. वही मां रामदुलारी, जो कर्पूरी ठाकुर के देवचंद्र झा समेत दूसरे कई सवर्ण गरीब छात्रों को शाम का भोजन कराया करती थीं.
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