दरअसल, उन दिनों गांवों के घरों में शौचालय नहीं होते थे. अगर किसी औरत को दिन में शौच की जरूरत महसूस होती थी, तो उसे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था. कई बार व शौच को रोकने का काम करती थी, जो बाद में उस की सेहत पर बुरा असर डालता था.
इस के चलते औरतों को कई तरह के पेट के रोग हो जाते थे. सब से बड़ी दिक्कत बरसात के दिनों में होती थी, जब खेतों में पानी भरा होता था. शौच करने झाड़ियों के बीच जाना होता था, जहां सांपबिच्छू आदि का खतरा अलग से बना रहता था.
यह कहना गलत नहीं होगा कि उन के दिन की शुरुआत ही बेहद संघर्ष से होती थी. लेकिन अब गांव की औरतों ने बहुत सारी कुप्रथाओं, बंदिशों और रूढ़ियों को छोड़ कर अपने घर की 'दहलीज' के बाहर कदम रख दिया है, जिस से उन की जिंदगी में बदलाव दिख रहा है.
मुसीबत हुई कम
पहले गांव में आटा तैयार करने वाली चक्की कम होती थी. धान से चावल निकालने का काम भी घर की औरतों को खुद ही करना होता था. घरघर में हाथ से गेहूं पीसने वाली चक्की और धान कूट कर चावल तैयार करने वाली चकिया होती थी. गरीबी इतनी थी कि घरों में इतना अनाज नहीं होता था कि मशीन वाली चक्की से आटा और चावल निकाला जा सके.
लोगों के पास दुधारू पशु होते थे. उन के दूध से घी तैयार होता था. कुछ के घरों में जानवरों को चारा खिलाना और उन से दूध निकालने का काम भी औरतों को ही करना होता था. इतना काम करने के बाद खाना बनाने का नंबर आता था.
चूल्हे पर खाना बनाना किसी चुनौती से कम नहीं होता था. अमीर किस्म के लोगों के घर में चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल होता था, बाकी लोग गोबर से बने कंडे या उपलों से चूल्हा जला कर खाना बनाते थे.
खाना बनाने में जो धुआं निकलता था, वह औरतों की आंखों को जल्द खराब कर देता था. कई औरतों को तो लंबे समय बाद दिखना तक बंद हो जाता था.
गांव की औरतें उस जिंदगी की कल्पना कर के सिहर उठती हैं. तब बड़े संयुक्त परिवार होते थे. घरेलू काम करने के लिए औरतों की ड्यूटी भी लगती थी. इस के अलावा तमाम दूसरे घरेलू काम भी उन्हें ही करने होते थे.
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