डायबिटीज के मरीज अरुण की भूख जब बरदाश्त के बाहर होने लगी और वे आवाज दे कर बोलने ही जा रहे थे कि रेणु ने आंखें तरेरी, "शर्म है कि नहीं कुछ आप को? बेटी के घर आए हो और भूखभूख कर रहे हो, जरा रुक नहीं सकते? यह आप का अपना घर नहीं है, बेटी की ससुराल आए हैं हम, समझे?"
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फिल्मों में कैंसर लोगों को बीमारी के बारे में बताया या सिर्फ इसे भुनाया
लाइलाज बीमारी कैंसर का हिंदी फिल्मों से ताल्लुक कोई 60 साल पुराना है. 1963 में सी वी श्रीधर निर्देशित राजकुमार, मीना कुमारी और राजेंद्र कुमार अभिनीत फिल्म 'दिल एक मंदिर' में सब से पहले कैंसर की भयावहता दिखाई गई थी लेकिन 'आनंद' के बाद कैंसर पर कई फिल्में बनीं जिन में से कुछ चलीं, कुछ नहीं भी चलीं जिन की अपनी वजहें भी थीं, मसलन निर्देशकों ने कैंसर को भुनाने की कोशिश ज्यादा की.
अधेड़ उम्र में शादी पर सवाल कैसा
आयु का इच्छाओं से कोई संबंध नहीं है. अगर आप अपने बलबूते पर, खुद के भरोसे 60 वर्ष की आयु में भी शरीर बनाना चाहते हैं, दुनिया की सैर करना चाहते हैं, किसी हसीना के साथ डेट पर जाना चाहते हैं या शादी करना चाहते हैं तो भई, इस पर सवाल कैसा?
वौयस क्लोनिंग का खतरा
आजकल वौयस क्लोनिंग के जरिए महिलाओं को बेवकूफ बनाया जा रहा है. एआई की मदद से प्रेमी, भाई या किसी अन्य परिजन की आवाज में कौल कर पैसे ऐंठे जा रहे हैं जो डिजिटलीकरण की कमियां दिखा रहा है.
हीनता और वितृष्णा का प्रतीक पादुका पूजन
भारत में गुरु तो गुरु, उन की पादुकाएं तक पैसा कमाती हैं. इसे चमत्कार कहें या बेवकूफी, यह अपने देश में ही होना संभव है. धर्मगुरुओं ने प्रवचनों के जरिए लोगों में आज कूटकूट कर इतनी हीनता भर दी है कि वे मानसिक तौर पर अपाहिज हो कर रह गए हैं.
बाल्टीमोर ब्रिज हादसा पुल के साथ ढहा भारतीय आत्मसम्मान
अमेरिका और अमेरिकी बहुत ज्यादा उदार नहीं हैं. विदेशियों, खासतौर से अश्वेतों के प्रति उन के पूर्वाग्रह, कुंठा, जलन और हिंसा सहित तमाम तरह के भेदभाव दैनिक सामाजिक जीवन का हिस्सा हैं जिन की तुलना हमारे देश में दलितों से किए जाने वाले व्यवहार से की जा सकती है. बाल्टीमोर पुल हादसे के बाद यह बात एक बार फिर साबित हुई है कि हमारी सरकार ने इस से कोई सरोकार नहीं रखा.
राजनीति में अदृश्य जंजीरों से बंधी महिलाएं
सावित्रीबाई फुले ने जो सोचा था कि पढ़लिख कर महिलाएं रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ देंगी वह हो नहीं सका क्योंकि आज शिक्षित होने के बाद भी महिलाएं कलश यात्राओं में शामिल हो कर अपनी आजादी देख रही हैं. वे बेहतर प्रबंधक होते हुए भी राजनीति में महज शोपीस बन कर रह गई हैं.
बीमारियों को न्योता देता मोटापा
मोटापा भारत समेत पूरी दुनिया की समस्या बनता जा रहा है. हालांकि यह समस्या ऐसी है जिसे वक्त रहते नियंत्रित किया जा सकता है, परंतु उस के लिए सही आकलन करना जरूरी है. जानिए कि कब मोटापे का अलार्म बजने लगता है?
महिलाओं को कमजोर बनातीं धार्मिक कलश यात्राएं
8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर देशभर में कई छोटेबड़े आयोजन हुए थे. उन समारोहों में अपने अपने क्षेत्रों की महिलाओं को सफल सम्मानित किया गया था और जम कर हुई भाषणबाजी में महिलाओं को देवी साबित करने का रिवाज भी कायम रहा था. वक्ताओं ने गागा कर बताया था कि आज महिलाएं किसी क्षेत्र में उन्नीस नहीं हैं. तमाम भाषणों का सार कुछ यों निकलता है.
मजबूत हो रहे हैं औरतों के हक बढ़ रहे हैं तलाक के मामले
जैसेजैसे औरतें शिक्षित हुईं, नौकरी में आगे बढ़ीं, उन्हें अपने खिलाफ होने वाली गलत बातों पर आवाज उठाना भी आने लगा. आर्थिक मजबूती इंसान में हिम्मत लाती है. यही औरतों के साथ भी हुआ. अब पति की मारपीट व गालियां जब बरदाश्त नहीं होतीं तो वे तलाक का रास्ता अपनाने से गुरेज नहीं करतीं.
एंटीएस्टैब्लिशमेंट प्रोफेसर जी एन साईबाबा आखिर किस बात की सजा मिली
प्रोफैसर साईबाबा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच फुटबौल सा बन चुके हैं जो 8 वर्षों से किक ही खा रहे हैं. लेकिन उन की दास्तां दुखद रूप से दिलचस्प है जिस का सार यह है कि उन का मनोबल दक्षिणपंथियों से टूट नहीं रहा.