बहुत सी लड़कियां जो जल्दी मां बनना नहीं और अबौर्शन कराना चाहती हैं मगर घर वालों के दबाव में आ कर ऐसा नहीं कर पातीं. इसी तरह कोई लड़की जो बच्चे को जन्म देना चाहती है उसे ससुराल वालों के कहने पर अबौर्शन कराना पड़ता है क्योंकि उस के गर्भ में लड़की है और घर वाले लड़की नहीं लड़का चाहते हैं. ऐसी बातें अकसर सुनने को मिलती हैं. जो दुलहन 2-3 साल प्रेगनेंट नहीं होना चाहती उसे जबरदस्ती उसकी ड्यूटी याद दिलाते हुए ऐसा करने को बाध्य किया जाता है.
रिप्रोडक्टिव कोअर्शन स्त्री के हक पर शिकंजा
गर्भधारण करना है, नहीं करना है, अबौर्शन कराना है, नहीं कराना है, कब मां बनना है जैसे फैसलों में औरतों की मरजी की अहमियत नहीं होती है. ये फैसले या तो पति करता है या फिर ससुराल के अन्य सदस्य, जबकि कोख लड़की की है, बच्चे को उसे अपने पेट में बड़ा करना है, बच्चा पैदा करने और पालने की तकलीफ उसे सहनी है मगर इन सब से जुड़े फैसले कोई और करता है. इस तरह गर्भधारण से जुड़े फैसलों को प्रभावित करना और इस के लिए जबरदस्ती करना प्रोडक्टिव को अर्शन यानी प्रजनन संबंधी हिंसा की श्रेणी में आता है.
वहीं कई मामलों में इस का उलटा भी होता है. महिला से पूछे बगैर या धोखे से उसे गर्भनिरोधक गोलियां खिला कर या जबरन अबोर्शन कराया जाता है. अगर परिवार नियोजन करना भी है तो इस का पूरा भार हमारे देश में महिलाओं पर ही थोप दिया जाता है. पुरुषों में आज भी नसबंदी को ले कर यह मिथ्य बेहद प्रचलित है कि नसबंदी से वे नपुंसकता का शिकार हो सकते हैं.
चौंकाने वाले आंकड़े
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पौपुलेशन फंड ने यह पता लगाने की कोशिश की कि महिलाओं के खुद के शरीर के बारे में फैसले लेने की क्षमता कितनी है. रिपोर्ट के मुताबिक 57 विकासशील देशों में रहने वाली करीब 50% महिलाओं के पास अपने शरीर को ले कर लिए जाने वाले फैसले जैसे गर्भनिरोधक, स्वास्थ्य सुविधा आदि लेने का कोई अधिकार नहीं होता. केवल 55% महिलाएं ही अपने स्वास्थ्य की देखभाल, गर्भनिरोधक और सैक्स के दौरान हां या न कहने के लिए सशक्त हैं.
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