गीता एक ऐसा अद्भुत ग्रंथ है जो युद्ध के मैदान में गाया गया। इसमें किसी सम्प्रदाय, किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी रीति-रिवाज विशेष की आलोचना या अनुमोदन नहीं है। अनुमोदन इस बात का है कि जीव अपने शिवत्व को पहचान ले, अपने कर्तव्य-कर्म में अलिप्त रहकर संसार के आकर्षणों-विकर्षणों से अपने को बचा के अपने-आपमें आराम पाते हुए संसार का व्यवहार खेल की नाईं करे।
तमाम दुनिया है खेल मेरा,
मैं खेल सबको खिला रहा हूँ।
जैसे वेदांती अपने अद्वितीय स्वरूप में जग जाते हैं तो पूरा ब्रह्मांड उनको अपने स्वरूप का खेल लगता है, जैसे रात्रि का स्वप्न जागने पर खेल लगता है वैसे ही गीता आपकी वास्तविकता जगाकर संसाररूपी पूरे खेल की पोल खोल देती है। आज तक जो छोटे-छोटे कर्मों में, पुण्यों-पापों में, आकर्षणों में अपने को बाँधे जा रहे थे वह बेवकूफी गीता हँसते-हँसते छुड़ा देती है।
बाह्य सेवा-पूजा का फल अगर पाना है तो किन्हीं जगे हुए महापुरुष के चरणों में पहुँचना चाहिए। यह बात युद्ध के मैदान में भी श्रीकृष्ण भूले नहीं:
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
'उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उनको भलीभाँति दंडवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़ के सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।' (गीता: ४.३४)
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